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हम कब मारे जाएँगे

hum kab mare jayenge

विशाल श्रीवास्तव

विशाल श्रीवास्तव

हम कब मारे जाएँगे

विशाल श्रीवास्तव

इस वीकेंड

जब दो विश्व शांति के नोबेल जेता

आँखें मूँदे

रंगून में चूम रहे थे एक दूसरे को

लगभग उसी वक़्त गाज़ा की सड़कों पर

ले जाए जा रहे थे

फ़िलिस्तीनी झंडे में लिपटे

तीन मासूम बच्चों के शव

एक चीख़ती आवाज़ पूछती है

क्या इन्होंने दाग़े थे रॉकेट

नहींऽऽऽऽ

जवाब देती है विलाप करती हुई भीड़

पता भी नहीं कि उनके हाथ में निवाला था

या उनकी पसंद का खिलौना

या भयाक्रांत वे गोद में थे अपनी माँ की

जब मौत उतरी उनके घर की छत पर

उसी आसमान से

जो उनके लिए आनंद और विस्मय की जगह थी

जहाँ वे इंद्रधनुष देखते थे

देखते थे चिड़ियों का उड़ना

उनकी पतंगें उड़ती थीं जिसके अनंत में

जिसके गर्भ में वे

अपनी फ़ुटबॉल मार देना चाहते थे

आख़िर कैसा लगता होगा अपनी ही ज़मीन पर

रहने की सज़ा के तौर पर मार दिया जाना

और वह भी तब जब आपको पता हो

मौत के बारे में ठीक से

सन्नाटा पसर जाता है सड़क पर

गहरा गहरा इतना गहरा

कि चाहे तो उसमें डूबकर

आत्महत्या भी कर सकते हैं

अमेरिका और इज़राइल

सन्नाटा ही नहीं

भय भी गहरा होता है आस-पास

आठ साल का मोहम्मद

एक ऐसा सवाल पूछता है

अपने पिता से

जिसे दुनिया के किसी भी कोने में

आठ साल के बच्चे की ओर से

कभी नहीं पूछा जाना चाहिए

‘हम कब मारे जाएँगे?’

स्रोत :
  • पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 112)
  • रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2016

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