आज तक कहाँ किया
कभी मुँह अपना मलिन
साबे की रस्सी जैसी माँ की तकलीफ़ें
और पिता की बेरोज़गारी
एक-दूसरे से लिपटी रही हमेशा
एक गहरी आत्मीयता के साथ
ऐसे जैसे दोनों के बिना
दोनों का निर्वाह कठिन
धूपदानी की कहकती आग में पड़े सरड़ से
उठते ख़ुशबूदार धुएँ-सी माँ मेरी
किए रही हमारे परिवार की जलवायु सुगंधित
लेकिन जानता हूँ मैं कि वह
भीतर ही भीतर जलते-जलते कैसे होती रही शेष
गर्म दूध और हल्दी से
स्वास्थ्य ठीक करने वाली मेरी माँ
फाँकती रहती है आजकल
भूजे की मानिंद दवाइयाँ
जबकि उसकी ही उम्र की
उसकी सखियों की तरह के कुछ लोग
इस देश के एक विराट महानगर में
अलस्सुबह रनिंग-शू पहन
रन-रन करती-सी मिलते हैं मुझे
रोज़ की मेरी मॉर्निंग वॉक के दौरान प्रायः
हरीतिमा से सजी-भरी मेरी कॉलोनी के पार्क में
उसकी उपस्थिति का भान मात्र ही
करता रहता है ऊर्जस्वित
उसकी ही ऊर्जा से अरजा गया मैं और मेरा भविष्य
इस विकट महानगरीय जीवन जीने के दौरान
अपने कमरे की एकजनियाँ खाट पर
अतीत को याद करते विचारता है एकांत में—
‘माँ—समाजवादी पिता और साम्यवादी पुत्र के बीच—
करती रही है अनंतकाल से रक्षा
इस देश के ढनमनाए पर लोकतांत्रिक घर को।’
- पुस्तक : सदानीरा
- संपादक : अविनाश मिश्र
- रचनाकार : गुंजन श्री
- प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका
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