आसफाल्ट रोड,
स्निग्ध सौम्य औ’ सपाट कुछ भी न खोंड।
क्लॉक टावर में बजे (सुने) बारह रात के,
एक कतार में अनेक किंतु एक भाँत के
नियोन फानूस
लंबी ट्राम की पटरियों को घिस रहा है
प्रकाश-रेती की तरह!
ये पटरियाँ सूर्य-तेज़ में नहीं हँसी, अब हँस रही हैं।
सारा मार्ग ‘लोह हास्य’ से रसमसा उठा है।
यहाँ सबेरे और शाम,
काम हो या न हो,
कई लोग-एक-दूसरे से अनजान,
पर फिर भी कोई प्रेत नहीं, सबमें अब भी प्राण
कई वृद्ध
जो अपने विलीन भूत काल पर सदा ही क्रुद्ध हैं,
अरे, लोरेन्स में क्या कोई ऐसी दूरबीन नहीं मिलती
कि जिससे ये अपने विगत काल को देख सकें?
अनेक नवयुवक
जिनका भविष्य अभी ठोकरें खा रहा है, जिन्हें ज़रा भी भान नहीं,
और जिनके भविष्य का चित्र न शांग्रिला में न सेण्ट्रल में प्राप्य है,
सुप्राप्य है ए. जी. आई. गेल पर और चार्टर में!
कई फक्कड़
सभी रास्ते जिनके लिए सँकरे हैं ही नहीं,
फिर भी व्हाईट वेज़ के शीशे की उस अपूर्व आभरणयुक्त काष्ठसुंदरी पर
जिनकी आँखें और पैर ठोकरें खाते हैं!
कई मुफ़लिस
जो सदा ही कुटुम्ब-ख़र्च के जमा-उधार के आँकड़े रटते रहते हैं
और हमेशा वेस्ट एंड वाच के समीप आते-जाते
अपनी घड़ी का समय ठीक करते रहते हैं, कहीं ऐसा
न हो कि काल लापता हो जाए।
अनेक टाईपिस्ट गर्ल्स, कारकुन
जो गुप-चुप एक ढर्रे से जीवन को सहते जाते हैं,
लंच के समय इवांस फ्रेज़र में चक्कर लगा आते हैं,
और पल-भर सीधे खड़े होकर नई स्लेक्सटाइयों को देख लेते हैं!
कई मज़दूर
जो अब भी जी रहे हैं ‘हुजूर, जी हुजूर’ कहते-कहते!
उन्हें अब तक किसी ने यह नहीं कहा, ‘तुम हो स्वतंत्र’,
भले ही चलता रहे अखंड गति से 'टाइम्स ऑफ इंडिया' का यंत्र।
कोई नारी (ज़रा औरों से अनोखी)
जो ब्यूक फोर्ड में ही ढूँढ़ती है रात-भर का ग्राहक;
पार्किंग के लिए दिन नियत किए हुए हैं,
उसी के अनुसार सिर्फ़ फुटपाथ ही बदला जाता है।
कोई (मुझ-जैसा, मैं नहीं!) कवि
जो पुरानी पंक्तियों को स्मरण कर रहा है, एक भी नई नहीं पाता,
जोईस और प्रुस्त न्यू बुक कंपनी में पड़े हुए हैं,
किंतु ज़िंदगी पुस्तकों के बीच सदा नहीं गुज़ारी जा सकती!
अरे, कितने लोग पद-पद पर चाल में स्खलन दृष्टिगोचर होता है?
कहीं उनका हिलना-डुलना स्वप्न में तो नहीं हो रहा है?
सबेरे और शाम,
आते हैं और जाते हैं!
“अरे, ये सब इस समय कहाँ जाते होंगे?
मन में अनायास यह प्रश्न उठता है,
वही मार्ग, जो अपने ऊपर एक भी पद-चिह्न धारण नहीं करता,
कहता है : “ये पृथ्वी पर थे ही कहाँ?”
दोनों ओर जो अनेक आलीशान इमारतें खड़ी हैं,
वे समाधिभंग साधु की भाँति तुरंत उखड़ पड़ती हैं :
“नहीं थे, नहीं थे।”
और...टनन्-टनन् करती आख़िरी ट्राम गुजरती है,
क्या गति है?
उसके लिए तो यह ज़रूर कहा जा सकता है कि
वह कहाँ जाती है, किस डिपो की ओर
मानव-रहस्य को मैं कुछ तो जानता हूँ।
आँखों से न भी देखा हो पर हृदय तो प्रमाणित करता ही है
कि अस्तमान सूर्य (जिसके ये सभी वारिस हैं) सभी को हर लेता है।
और सारा समूह स्वप्न-लोक में फिसल पड़ता है :
सहस्र सूर्य से सदा प्रकाशित,
आकाश जिसकी भूमि है,
जहाँ सदा ही जागृति है,
जहाँ एक भी पूर्व स्मृति मौजूद नहीं है,
जो पराया प्रदेश नहीं है,
जहाँ किसी का भार नहीं है,
जहाँ स्वर-विहार संभव है...
ये आकाश के तारे उनके पद-पद तो प्रकाशित नहीं हो रहे हैं?
आसफाल्ट रोड
स्निग्ध, सौम्य औ’ सपाट, कुछ भी न खोंड।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 229)
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक रंधीर उपाध्याय, आनंदीलाल तिवारी, सुन्दरम्
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1956
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.