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हमारी ख़ामोशी

hamari khamoshi

सरोद सुदीप

सरोद सुदीप

हमारी ख़ामोशी

सरोद सुदीप

और अधिकसरोद सुदीप

    पत्र प्रतिदिन आते हैं

    पर अपना एक भी नहीं

    भरे मेले में जाएँ

    फिर भी किसी का बसंत बुहारना

    मन को हथेली पर दिखाते घूमना

    हर मोड़ पर टूटना, बिखर जाना

    आवाज़ों का लौटना

    जोड़-जोड़कर बैठने की जगह बनाना

    कभी पूजा बिखर गई

    कभी घर खो गया

    अथवा दरवाज़े पर आवाज़ लगाना

    बाहर आओ

    शोर मचाओ

    हमें ख़ामोशी खा रही है

    यों ही मन लगाने का बहाना

    बल्कि गहरे, और गहरे उतर गए

    दिन के बाद रात

    रात के बाद दिन

    किसे प्रतीक्षा थी

    किसने आना था

    एक हाथ बढ़ता मेरी ओर

    सिर से पाँव तक दुआ आशीर्वाद देता

    फिर उसके सुबकने की आवाज़

    कपास के फाहों-सा उड़ना

    दुकानों के बोड़ों से अक्षर मिटते जाना, नियान लाइटें

    वापस लौटने का भ्रम, ज़िद में चलते रहना

    बार-बार देखना नाली की ईंट को

    जो उठ रही शीश महलों की ओर

    कैसा देश है, जहाँ आदमी सिर्फ ख़बर बनता है।

    कहाँ है हँसी, एक अदृश्य पिंजरे में

    कितना होता है सफ़र मन का दीपक जलाना

    आधी रात उठ बैठना, आदमी कब किसी समय

    अपनी तलाश में चला था?

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 437)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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