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प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका

primary school ki adhyapika

कृष्ण कल्पित

कृष्ण कल्पित

प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका

कृष्ण कल्पित

प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका

अपने जीवन के लिए एक कविता माँगती है

उसे मिलती है हरी सब्ज़ियाँ खाने की सलाह

घूरती हुई अजीब निगाहें

रास्तें में मिलता है एक बच्चा

लालच भरी नज़रों से देखता

उन स्तनों की ओर

जिनमें हो सकता था दूध

कितनी दूर से आकर

एक अनजान क़स्बे में

कमरा ढूँढ़ती है अकेली औरत

कुएँ में कूद नहीं जाती है

आग में जल नहीं जाती है

नदी में डूब नहीं जाती है

अकेली औरत एक कमरा ढूँढ़ती है

जहाँ पर सुलगा सके सिगड़ी

सुखा सके कपड़े

पहुँच सके हर सुबह

क़स्बे की धूल को चीरते हुए

स्कूल के मैदान तक

राज्यादेश भटकाता है औरतों को

एक शहर से दूसरे शहर

वे चौराहों पर भटकती हैं

गणतंत्र की उदास गायें

कितनी तकलीफ़ कितना अफ़सोस होता है

कि वह औरत वेश्या नहीं है

जो अभी-अभी उतरी है बस से

क़स्बे के स्कूल की नई अध्यापिका।

स्रोत :
  • पुस्तक : बढ़ई का बेटा (पृष्ठ 30)
  • रचनाकार : कृष्ण कल्पित
  • प्रकाशन : रचना प्रकाशन
  • संस्करण : 1990

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