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गृहस्थिन का पदचारण

grihasthin ka padcharan

अर्पण कुमार

अर्पण कुमार

गृहस्थिन का पदचारण

अर्पण कुमार

टहलते हुए

और बढ़ाकर एक झटके में

अपने पुष्ट क़दमों को

वह सूरज को

किसी गेंद की तरह उठाकर

आसमान में जड़ देती है

सुबह-सुबह की लालिमा

उसके चेहरे पर तिर आती है

मैं उसके गदराए गालों को

तो कभी

उसके मज़बूत पैरों को देखता हूँ

अपनी गृहस्थी सँभालती

कुछ समय स्वयं के लिए निकालती

अपना वज़न कम करने के निमित्त

अलस्सुबह सैर को निकली स्त्री

दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत स्त्री है

अंकुरित दानों को खाते हुए

जो मिठास उसके भीतर उतरती है

वह दिन भर लोगों के बीच

बाँटती रहती है उसे

किसी प्रसाद की तरह

टहलते हुए वह बतिया लेती है

दूर किसी और शहर में रहते अपने बच्चों से

जगा देती है उन्हें समय पर

कि छूट जाए उनकी स्कूल बस

सीसीटीवी कैमरे का एप्लीकेशन है

उसके मोबाइल पर

जब-तब निहारती रहती है

उसके भीतर की माँ

अपने बच्चों को

वह एक भरी-पूरी गृहस्थिन है

जो टहल रही है

रामगढ़ ताल के किनारे

गोरखपुर में

जिसके बच्चे हैं इन दिनों

लखनऊ में

जहाँ हर सप्ताह

हो तत्पर वह भागती है

जैसे कोई चिड़िया लौटी जा रही हो

अपने घोंसले की ओर

जहाँ इंतज़ार कर रहे हैं

उसके अवयस्क दो बच्चे

और वयस्क एक पति।

स्रोत :
  • रचनाकार : अर्पण कुमार
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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