भगवान हर जनम में पत्थर ही रहे होंगे
bhagwan har janam mein patthar hi rahe honge
निखिल आनंद गिरि
Nikhil Anand Giri
भगवान हर जनम में पत्थर ही रहे होंगे
bhagwan har janam mein patthar hi rahe honge
Nikhil Anand Giri
निखिल आनंद गिरि
और अधिकनिखिल आनंद गिरि
पिता हमारे लिए नाख़ून की तरह थे
मुँह में चबाने जैसी बुरी आदत जैसे
बात-बात में काटे जाने लायक़ जितना ज़रूरी
प्यास लगने पर पानी जितना ज़रूरी नहीं
माँ झड़ते बालों की तरह क़ीमती थी
कमज़ोर आँखों के लिए चश्मे जितनी
दमे की बीमारी में लंबी साँस जितनी
गुज़रते दिनों के साथ घटी नहीं क़ीमत
प्रेमिकाएँ जवानी के दिनों में सब कुछ थीं
प्यार, समाज, शरीर और सदाबहार मुस्कान
पत्नी बुढ़ापे के लिए सामाजिक जुगाड़
शादी दो रिश्तों में एक पुल की तरह
सब हुआ जैसा समाज ने तय किया
उम्र की क़ीमत पर हो गए अमीर
बड़ा होना बचपने से भी मज़ाक़िया
हार जाने में जीतने जैसा उत्सव था
एक वीरान कमरे में सिमट गई दिल्ली
चार चूल्हों की लड़ाइयों में सारा गाँव
और शरीर की हद में ही सारा प्यार
यूँ चली मौत की दहलीज़ तक ज़िंदगी
हम उस जन्म में भी रहे होंगे आम आदमी
प्रेमिकाएँ उस जन्म में रही होंगी पागल
पिछले जन्म में ज़मींदार रहे होंगे पिता
भगवान हर जनम में पत्थर ही रहे होंगे।
- रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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