एक
देखते-देखते एक दिन ढह जाएँगे
नगर के सारे तोरण-द्वार
पथ की कीच में
फँस जाएगा रथ का पहिया,
चाबुक से दाग़दार हो गई
घोड़े की पीठ
समय के सच में
तब्दील हो जाएगी।
घोड़े ‘कहना’ नहीं मानेंगे;
झकझोर देंगे रथ
काँप उठेंगी सारी दिशाएँ,
सारथी के हाथ से
छूट जाएँगी वल्गाएँ।
दाग़दार पीठों का दर्द
जमा होंगे खुरों में।
घोड़ों से भर जाएगा नगर,
कुचल दिए जाएँगे सारथी,
आज़ाद होंगे घोड़े।
घोड़े ज़ोर-ज़ोर से हिनहिनाएँगे,
गाएँगे अपनी स्वतंत्रता के गीत
घोड़े ‘घोड़े’ होने में ख़ुश होंगे
जब जान जाएँगे खुरों की शक्ति...
जागेंगे घोड़े
मिटा देंगे रथों को।
रथों का होना
आमंत्रण देना है सारथियों को,
जैसे कि घोड़े का सोना
दाग़दार होना पीठ का
ज़िंदा होना चाबुक का।
दो
युद्धस्थल में खड़े हैं घोड़े
ख़ुद निर्णय लेते
अपने लिए लड़ते
वल्गाओं से मुक्त होते घोड़े
सुंदर दिखते हैं।
तीन
घोड़े लैंपपोस्ट के नीचे
बतिया रहे हैं...
युद्ध और शांति के बीच घोड़े
वॉयलिन की सोच रहे हैं
नई लय
नए संगीत की धुन
तलाश रहे हैं घोड़े।
चार
घोड़े ने अपनी पीठ पर
ढोई सभ्यता
हड़प्पा की वीथियों में,
रेगिस्तानों में
गूँजती है उनके खुरो की टाप।
एक साज़िश रची गई फिर भी
इतिहास के पन्नों से
उनके नाम ग़ायब हैं
पाँच
उदास हैं राजा के हक़ की लड़ाई लड़ने वाले घोड़े
पृथ्वी को रौंदने का दुख है उन्हें।
उनके खुरों पर अपने ही लोगों को कुचलने के दाग़ हैं
उनकी पसलियाँ अब भी ज़ोर-ज़ोर से दुखती हैं
कितने ही रेगिस्तानों की धूल लिपटी है उनके पाँवों से,
कितने ही समुद्रों का पानी रिसता है उनके शरीर से।
- पुस्तक : आशा इतिहास से संवाद है (पृष्ठ 35)
- रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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