Font by Mehr Nastaliq Web

घर एक नामुमकिन जगह है

ghar ek namumkin jagah hai

सौम्य मालवीय

सौम्य मालवीय

घर एक नामुमकिन जगह है

सौम्य मालवीय

और अधिकसौम्य मालवीय

     

    भारतीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने की क़वाइद में असम में बेघर हुए लोगों के लिए

    घर एक नामुमकिन जगह है
    जिसे लोग-बाग़ अपना घर मान बैठते हैं
    वह देर-सबेर खटक जाता है किसी की नज़रों में
    कभी कोई मुल्क जिसे अपने काग़ज़ याद हो आते हैं
    कभी कोई मज़हब जिसे अपने ख़ुदा की फ़िक्र हो आती है
    तंज़ीमें जिन्हें अपने-परायों का फ़र्क़ बेचैन कर देता है
    तरक़्क़ी के रास्ते जो आँगनों से होकर गुज़र जाते हैं
    कुछ लोग अपने घरों में ऊँची आवाज़ में टीवी देखते हैं
    बाज़ ऊँची ख़ामोशी में सुकून पाते हैं
    कुछ की मुराद ज़ीनों के नीचे डिज़ाइनर पौधे लगाने की होती है
    दीवारों को सादा ही छोड़ देते हैं कुछ और फ़र्श को क़ालीनों से भर देते हैं
    अपने घरों के पते वे बाँट देते हैं सब जगह
    जाने क्या इत्मीनान होता है उन्हें
    घर उनके लिए यक़ीन का नाम होता है
    वे नामुमकिन लोग होते हैं
    मुमकिन लोग घर का दरवाज़ा खोलकर घर में दाख़िल नहीं होते
    कभी पानी, कभी सड़क, कभी रेलगाड़ी
    कभी सब कुछ में क़तरा-क़तरा
    अपने दालान, सहन, हाते, छतें, रसोइयाँ और ग़ुसलख़ाने लिए
    जहाँ अपनी गठरी खोल देते हैं वहीं घर हो जाता है
    ज़मीन थाम लेती है आशियाने
    आसमान कुछ नीचे आ जाता है
    बस्तियों की ख़्वाहिश फैलना नहीं आबाद होना होती है
    धीमे-धीमे बसाहटें घर बन जाती हैं
    नस्लें पैदा होती हैं, मरती हैं
    खंडहर घर हो जाते हैं
    घर खंडहर,
    कभी खंडहरों से रेलगाड़ियों की आवाज़ आती है
    तो लोग देहरियों पर दिए रख आते हैं
    फिर उर्स-मेले-मजमे-नशिस्तें
    खंडहर भी बस्तियों से बेदख़ल नहीं होते!
    उनमें रहते हैं वे जो न मुमकिन होते हैं न नामुमकिन
    पेड़ों की गवाही में यूँ धरती काग़ज़ों से आज़ाद होती है
    सदियों-दर-सदियों वाक़ई लगता है कुछ मुकम्मल होता-सा
    पर फिर वही पसीने की बू घरबदर होती है
    उभरने लगते हैं सादा-शक्ल क़मीज़ों पर ख़ून के छींटे
    सोते समय भी जो अपनी टाई नहीं खोलते
    ऐसे डरे हुए बलवाई पहचान पत्र माँगने लगते हैं
    बिना पलटे ही पलट जाते हैं समय के सफ़े
    खिसक जाता है घर चाँद की परली तरफ़
    फ़िरोज़ी रंग के दुपट्टों की उड़ती रंगत
    बटलोइयों की दुआएँ, नमक का स्वाद, बच्चों की हँसी और सूरज
    पहुँच जाते हैं शरणार्थी शिविरों में
    रसद की लंबी लाइन में सुई की नोक बराबर जगह से
    बाहर झाँक रही दूब की एक कनी पर भी बेज़मीनियत के छाले पड़ जाते हैं!
    जो नामुमकिन है वह ज़िंदगी नहीं, मौत नहीं, मामूलियत नहीं, मोजज़ा नहीं
    घर के हिस्से की जगह है!
    जो फ़ुटपाथों से भी कम है और समंदरों में डूबी हुई है
    जिसे भाटे की उतरती लहरों ने कभी ऊपर फेंक दिया था
    और छत ढूँढ़ रहे लोगों ने जिसे नस्ले-आदम की इंसानियत के नाम पर 
    ज़ेहन में नस्ब कर लिया था
    पर कब ये शै कँटीले तारों में उलझ कर नापैद हो जाती है
    कब अँधेरे की नदी में
    सहमे हुए चप्पुओं से फिसलकर
    सर्द पानी में खो जाती है
    कब पुराने बदशक्ल पीले काग़ज़ों की सूरत ग़ैरकानूनी हो जाती है
    छूट जाती है, छोड़ देती है, पता नहीं चलता!
    घर एक नामुमकिन जगह है
    क्यूँकि कभी-कभी ख़ुद घर ही खदेड़ देता है बेघरी के सेहरा में
    जो हमवतन होते हैं क़ौम के कामिल हो जाते हैं
    पड़ोसी सरकारी फ़ाइलों में शामिल हो जाते हैं
    दोस्त-अहबाब वतनपरस्ती में ग़ाफ़िल हो जाते हैं
    घर कट-फट जाता है दौड़ते-भागते
    बदल जाता है किसी नामुमकिन से पैरहन में
    कितना रवायती लगता है ये सब
    मानो होना ही था!
    जिनके घरों के आगे वाले दरवाज़े को पता नहीं की पीछे वाला दरवाज़ा किधर खुलता है
    वे सरहदों की दुहाई देते हैं
    हर साल दस्तानों की माँग पर मोज़े भिजवाते हैं
    और अपने ड्रॉइंग रूमों में बैठ ठंडी आहें भरते हैं
    सचमुच कितने नामुमकिन होते हैं वो लोग जिनके घर मुमकिन होते हैं
    बर्फ़ानी तूफ़ानों में जब कुछ की क़ब्रें भी उघड़ जाती हैं
    तब उनके दरवाज़ों की साँकल भी नहीं गिरती
    क्या वो वाक़ई घरों में रहते हैं?
    वो किसकी याद करते हैं?
    किसे बचाते, किसे छुपाते, किसके ख़्वाब देखते हैं
    क्या वो जानते नहीं की तमाम इंतज़ामों के बाद भी घर छूटता ही है
    और दिल में धड़कती हुई
    एक तक़रीबन घर जैसी जगह रह जाती है
    जिस पर अगर एक गिलहरी उचक कर 
    अख़रोट खा सके तो उतना ही बहुत है!
    विज़िटिंग कार्ड पर घर का पता नहीं
    नींद की धुँध में झिलमिला रहा
    घर का सपना ही बहुत है!
    बहुत है, बहुत है कि जो मुमकिन हुआ है वो छीना न जाए
    जब तक रूह की आरज़ू है, रूह है, इस चाक बदन का सफ़ीना न जाए
    वर्ना घर तो फिर एक नामुमकिन जगह है और ज़िंदगी,
    ज़िंदगी तो एक नामुमकिन समय है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौम्य मालवीय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए