गीत भी अब मन नहीं बहला रहे हैं
geet bhi ab man nahin bahla rahe hain
अनमने हो,
घाव को सहला रहे हैं
गीत भी अब,
मन नहीं बहला रहे हैं
आग को आरंभ से
पहचानते थे
हम अबीते वक़्त का,
सच जानते थे
हम कि क्या थे
और क्या कहला रहे हैं
छंद में बँधकर,
स्वयं स्वच्छंद रहते
फूल होकर कब तलक
निर्गंध रहते?
हम कि अपने आपको,
टहला रहे हैं
एक चुप्पी का
अचानक चीख़ होना
देखते हम,
समय का तारीख़ होना
सोच बीता कल
कि दिल दहला रहे हैं।
- रचनाकार : यश मालवीय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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