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गऊमाता

gaumata

संजय चतुर्वेदी

और अधिकसंजय चतुर्वेदी

    बचपन में हम लोग गाय का दूध पिया करते थे

    और गऊमाता को थोड़ा सम्मान देकर

    उसके बच्चों का हक़ मारते

    रात को इस कमाई की तारीफ़

    संस्कृत में होती

    एक श्यामा गऊ थी हमारे यहाँ

    जिसे हमने बाज़ार से ख़रीदा था

    बेचने वाला भी कोई हिंदू ही रहा होगा

    काली-काली छोटी-सी

    हमें बहुत प्यार करती

    रोज़ उसके पैर छुए जाते

    होली-दिवाली उसके लाल-लाल टीका किया जाता

    और जब लगातार तीन साल

    उसने दूध नहीं दिया

    हमने उसे घर से निकाल दिया

    बहुत दिनों तक पलटकर आती रही वो हमारे दरवाज़े

    और लौटती रही बेआवाज़

    पता नहीं उसकी समझ में क्या आता होगा

    कि हमने उसे क्यों निकाल दिया

    कभी वह टकटकी बाँधकर

    दूसरी गायों को चारा खाते देखती

    देखती रहती

    एक दो बार चारा खाने की कोशिश भी की उसने

    लेकिन दूसरी गायों ने उसे खदेड़ दिया

    कमज़ोर हो चुकी थी

    लड़ नहीं पाई

    फिर वो कभी अंदर घुसी

    कई बार उसकी हड्डियों पर

    मोहल्ले वालों के निशान होते

    भूख रोक पाने की सज़ा टपकती उसकी चोटों से

    सभी उसे दुत्कारते

    एक जगह खड़ी भी नहीं रह पाती

    घसीटती थी अपने आपको इधर-उधर चुपचाप पिटने के लिए

    फिर भी हमें देखकर बहुत ख़ुश होती

    वह हमें बाहर भी पहचान लेती

    और बहुत प्यार करती

    कभी जब मन बहुत धिक्कारता

    हम उसे कुछ खिलाते

    जिसे अपने अज्ञान में हम अच्छा-अच्छा समझते थे

    लेकिन वह उसके लिए अच्छा नहीं था

    रोटियाँ ज़ुरूर उसे रोज़ मिलतीं

    लेकिन रोटियों से उसका होता क्या

    वह चुपचाप खा लेती

    और हमें अपने बच्चों की तरह देखती

    हममें इतनी हिम्मत होती

    कि उसकी आँखों में देर तक देख पाते

    वो शायद इसे समझती

    और चली जाती

    धीरे-धीरे वो मरियल और बदसूरत होती गई

    और एक दिन बदहवास

    वह रेलगाड़ी से कट गई

    चारो तरफ़ गिद्ध इकट्ठा होने लगे थे

    जब हमने उसके टूटे-बिखरे शरीर को अंतिम बार देखा

    और घर आकर बहुत रोए

    पता नहीं कब तक रोते रहे

    लेकिन आख़िर चुप हुए

    और दूध पिया

    और पीते रहे

    और पीते-पीते बड़े हो गए

    अब हम बड़े हो गए हैं

    कभी-कभी दिल बहलाने को

    हम आज भी रोते हैं

    अपनी श्यामा की याद में

    पर चुप होते हैं आख़िरकार

    और दूध पीते हैं

    बचपन के दृश्य प्रायः धुँधले पड़ चुके हैं

    लेकिन आज भी सपनों में कभी-कभी आती हैं

    असमय भूसा खाने को मजबूर

    अपने अर्धमृत बच्चों को देखकर दूध देती हमारी गऊमाताएँ

    और तब लगता है

    कहीं बेहतर था

    हमारी श्यामा का बाँझपन।

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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