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माँ

maan

जब भी रोपना चाहा

घर में किसी ने

अपनी आकाँक्षा का पौधा

माँ बन गई धरती

ऊँचाइयाँ छूनी चाहीं किसी ने

वह सीढ़ी बनने को तैयार मिली

सदैव

बड़े संयुक्त परिवार की छोटी बहू वह

कामकाजी जेठानी के बच्चे भी

हिलगे रहे उससे

सगे बच्चों की तरह

ख़ुशियाँ किसी की भी हों

शामिल हुई वह आकाश की तरह

मन उसका आँगन-सा प्रशस्त

और कोने भी असंख्य उसके

जहाँ छुपे-मुँदे रखती आई

भेद और पश्चाताप सबके

किसी की नौकरी छूटी

या रिज़ल्ट हुआ ख़राब

पायदान बनकर जज़्ब कर ली उसने

कुण्ठा और नाराज़गियों की धूल

बिना शिकायत

रात 3.33 की ट्रेन पकड़नी होती है किसी को

वही होती है सबसे भरोसेमंद अलार्मघड़ी

पूरी-पूरी रातों में

अधसोई माँ

दोनों हाथों उलीचती रही

सबके हिस्से की सियाही

झाडू की शक्ल में

घर का अमंगल हटाती माँ

तुलसीजल से नहलाती रही

हमारे संसार को

बुहारकर करती रही न्यून

अपनी आवश्यकताओं को

ताकि हर एक को हासिल हो

बेहतर से बेहतर

एक देहरी की हुई माँ

मायके के गम में

जीवन भर सुलगती रही लकड़ी-सी

उजाला करती रही जीवन में सबके

ताउम्र दैनंदिनी-सी रहती आई माँ

रोज़ दर्ज़ करती है

कोई रूठा तो नहीं

कोई सोया तो नहीं भूखा

सबको नाम देकर

भूल गई अपना नाम

अकड़ती कमर, चिलकते पैर, दुखते सिर के साथ

हाँव-हाँव दिनचर्या से समय चुरा-चुरा कर

अपनी इच्छाओं पर ताले जड़ कर

चाबी सी रही वह

तरक़्क़ी के दरवाज़े खुलते रहे

सबके लिए

बेटी का मायका उससे

उसी से बना रहता है बेटों का इत्मीनान

वह बँटती रहती है सबमें

रीतती रहती है थोड़ी-थोड़ी

जब जैसी ज़रूरत हुई

वही सामान बनकर

सबके काम आने वाली माँ को लगता है

कोई नेम-धरम नहीं किया उसने ज़िंदगी भर

अब जाना चाहती है तीरथ

जीवन को सकारथ करने

नहीं जानती

उसके किए, उसके दिए के संमुख

हल्के हैं चारों धाम

गंगा-नर्मदा में बह रहा है पानी

उसी के पुन्न से।

स्रोत :
  • रचनाकार : दीप्ति कुशवाह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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