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सन् 1857 की जनक्रांति

san 1857 ki janakranti

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

सन् 1857 की जनक्रांति

गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

जब विदेशियों का भारत में, धीरे-धीरे अधिकार हुआ।

बन गया प्रजा के लिए नरक, सूना सुख का संसार हुआ॥

जनता का रक्त चूसने को, व्यवसाय हुआ, व्यापार हुआ।

थे दुखद दासता के बंधन, उस पर यह अत्याचार हुआ॥

छिन गया शिल्प शिल्पीगण का, छिन तख़्त गये, छिन ताज गये।

शाहों की शाही छिनी और राजाओं के भी राज गये॥

जो थे लक्ष्मी के लाल वही, दानों के हो मुहताज गये।

नौकर यमदूत कंपनी के बन और कोढ़ में खाज गये॥

तब धूँ-धूँ करके धधक उठीं, जनता की अंतर-ज्वालाएँ।

वीरों की कहें कहानी क्या, आगे बढ़ आयीं बालाएँ॥

आँखों में ख़ून उतर आया, तलवारें म्यानों से निकलीं।

टोलियाँ जवानों की बाहर, खेतों-खलिहानों से निकलीं॥

सम्राट बहादुरशाह ‘ज़फ़र', फिर आशाओं के केंद्र बने।

सेनानी निकले गाँव-गाँव, सरदार अनेक नरेंद्र बने॥

लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का।

हिंदू-मुस्लिम हो गये एक, रह गया नाम दुरंगी का॥

अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे।

घनघोर बादलों-से गरजे, बिजली बन-बनकर कड़क उठे॥

हर तरफ़ क्रांति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था ज़ोरों का।

'पुतला बचने पाये कहीं पर भारत में अब गोरों का॥'

आगरा-अवध के वीर बढ़े आगे बंगाल बिहार बढ़ा।

जो था सपूत, वह आज़ादी की करता हुआ पुकार बढ़ा॥

हाँ, हृदय देश का मध्य हिंद रण-मदोन्मत्त हुंकार बढ़ा।

झाँसी की रानी बढ़ी और नाना लेकर तलवार बढ़ा॥

कितने ही राजों नव्वाबों ने, कसी कमर प्रस्थान किया।

हम बलिवेदी की ओर बढ़े, इसमें अनुभव अभिमान किया॥

आसन परदेशी सत्ता का पीपल-पत्ता-सा डोल उठा।

उत्साहित होकर भारतीय 'भारत माँ की जय' बोल उठा॥

दुर्दैव, किंतु कुछ भारतीय, बन आये बेंट कुल्हाड़ी के।

पीछे खींचने लगे छकड़ा गरियार बैल ज्यों गाड़ी के॥

धन-लाभ किसी को हुआ और कुछ आये पद के झाँसे में।

देश-द्रोही बन गये, फँसे, जो मोह-लाभ के लासे में॥

बलिदान व्यर्थ कर दिए और पहनाया तौक ग़ुलामी का।

यह मिला नतीजा हमें बुरा अपनी-अपनी ही ख़ामी का॥

दब गई क्रांति की ज्वालाएँ, भारत अधिकांश उजाड़ हुआ।

गोरों के अत्याचारों से जीवन भी एक पहाड़ हुआ॥

यह कहीं दमन-दावानल से, उपचार क्रांति का होता है।

रह-रहकर उबल-उबल पड़ता, यह ऐसा अद्भुत सोता है॥

फिर भड़के जहाँ-तहाँ, जब-तब जल उठे क्रांति के अंगारे।

आज़ादी की बलिवेदी पर, बलि हुए देश-लोचन सारे॥

बीसवीं सदी के आते ही, फिर उमड़ा जोश जवानों में।

हड़कंप मच गया नए सिरे से, फिर शोषक शैतानों में॥

सौ बरस भी नहीं बीते थे सन् बयालीस पावन आया।

लोगों ने समझा नया जन्म लेकर सन् सत्तावन आया॥

आज़ादी की मच गई धूम फिर शोर हुआ आज़ादी का।

फिर जाग उठा यह सुप्त देश चालीस कोटि आबादी का॥

लाखों बलिदान ले चुकी है आज़ादी आनेवाली है।

अब देर नहीं रह गयी तनिक काली का खप्पर ख़ाली है॥

पीछे है सृजन, 'त्रिशूल' हाथ में लेता प्रथम कपाली है।

है अंत भला सो हाथ आज आई अपने ही पाली है॥

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