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बहुरूपिए पिताओं के बारे में

bahurupiye pitaon ke bare mein

निखिल आनंद गिरि

निखिल आनंद गिरि

बहुरूपिए पिताओं के बारे में

निखिल आनंद गिरि

उम्र के उस किनारे

किसी विशाल और सजीव मूरत की तरह

खड़ा है जैसे कोई सदियों से

मैं समंदर की तरह बहता हूँ

और पाँव छूकर लौट आता हूँ

पूछूँगा कभी उन पाँवों से

भीतर तक महसूस हुआ कि नहीं

सबसे अधिक बातें करना चाहता हूँ पिता से

असंख्य तारों से भी ज़्यादा

उन-उन भाषाओं में जो गढ़ी नहीं गईं

उन लिपियों में जिनका नाम तक नहीं मालूम

ऐसे ही संभव हैं कुछ बातें

तुम्हारी आँखों में धँसे दुख के बारे में

जो उतर आता है मेरी नसों में भी

बिना किसी मुहूर्त के

मेरे माथे पर उग आती हैं

तुम्हारे चेहरे की सब झुर्रियाँ।

मिलना चाहता हूँ उन सब पिताओं से

जो दिखते हैं मुझमें

प्रेमिकाओं की आँखों से

मैं पिता से प्रेमिकाओं की तरह मिलना चाहता हूँ

देवताओं की तरह नहीं

गले में कसकर हाथ डाले

बीच सड़क पर किसी नई फ़िल्म का

गाना गाते, भूलते बीच-बीच में

सर्दियों में ज़बरदस्ती आइसक्रीम खिलाते

सबसे असभ्य गालियाँ बकते

सबसे सभ्य दिखते लोगों को

झट खड़े हो जाते मेट्रो में

किसी पिता जैसे चेहरे को देखकर

उम्र के सब मचान लाँघते

तुम्हारे बेहद क़रीब आना चाहता हूँ

तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ नहीं हैं

फिर कैसे लड़ लेते हो हम सबके लिए

तुम्हारी आँखों में पावर वाला चश्मा है

फिर कैसे देख लेते हो सबसे दूर तक

तुम कोई बहुरूपिए हो पिता

एक सच्चे मिथक की तरह

तुम शक्तिपुंज हो पिता मेरे लिए

किसी मैग्निफ़ाइंग लेंस के सहारे

समेट लूँगा सब ऊर्जा

जो एक दिन जला देगी देखना

संसार के सब दुख, छल और नक़लीपन।

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निखिल आनंद गिरि

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स्रोत :
  • रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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