Font by Mehr Nastaliq Web

अकाल कुतरता नहीं

akal kutarta nahin

मलय

मलय

अकाल कुतरता नहीं

मलय

अकाल में

पानी बरसता है

आँसुओं की तरह

और फ़सल

साँसों की तरह

लपट में दहक जाती है

लपट लिपटती तो कभी नहीं

फफोलती है

जलन के हाथ-पाँव

जाल से फैलते हैं

और हड्डियों को

भूख की बारीक़ रेती से

कोई रेतता जाता है

जब जलने की तरह

भूख का बढ़ना

केंचुए की तरह

वहीं-वहीं सरकता है

तब लोहे की सिल्ली भी

चर्र से चबाने का सुख

दाँतों से लटककर लालायित

झूलता रहता है

मिलना कभी नहीं होता

बस उतरना

गिरना

गड़ना

और सूखकर खड़े हो जाना

मजबूरी में

हथेलियाँ रगड़ते हुए

तोड़ पाना फल

रह जाना

और झेल पाना

अकाल को

या भूख को

भाषा में फैलाना भर

फैलाना...

क्योंकि अभी बयार बहुत तेज़ नहीं चलती

जंगल हुँकारता नहीं

भर सुरसुराता है तेज़

नए पत्तों को

पतझरी खड़-खड़

उच्चरित नहीं होती

पत्थरी दरारों में फँसकर कुचलकर

बवंडर बन जाने की तरह

नहीं हो पाता तेज़

जलन की धुँध का स्वाद

तड़फ जाता है

पैरों तक चीरता

अकाल कुतरता नहीं

चीरता है फाड़ता है

भेजे में सोच की मिर्च

भर देने की तरह

तब भूखे पेट के खलिहान में

जर्जरित शरीर की खोहों से

बाहर निकली तलाश!

और तलाश

जब सूखते ख़ून की गवाह हो

तो कितनी बंजर

और ख़ूँख़ारों से निपटने

बढ़ी हुई दिशा के

सूर्य की तलाश हो सकती है!

झूठे आश्वासनों का गहराता अँधेरा

भाषणों में भाषा की कालाबाज़ारी

और मरुस्थली महँगाई का

बढ़ता हुआ थकाता बोझ

आँखों का सफ़ेद अँधेरा

असल में भाषा का अकाल

भी गहरा हो गया है

भूखी संवेदना की पत्तियों की

खड़खड़ाहट शेष है भर

अकाल से भूखी आवाज़ें

इस भाषा की बंद दीवालों के

दरवाज़ों को

नोचती-खरोंचती हुईं

हालात के शब्द संस्कारों से

देश को देखना

उचारना माँगती हैं

नंगी और घायल

और उसी हद तक हकलाती भाषा

संकट की दरार में फँसे

मनुष्यों के सरोकार से

काँच के टुकड़ों से छिदे दृश्यों

और चीरती ध्वनियों से भाषा

मस्तिष्क को छेदने की तरह

उतरती है

ख़ून की तरह टपकने से तड़फड़ा जाती है

अस्तव्यस्त लटपटा लथपथा जाती है

और इस अधूरेपन में अकाल

अकाल की तरह सब कुछ सुन रहा है

और बहरे लोगों की समझ को बुन रहा है

मेरे सिर पर बैठा गिद्ध

कुछ नहीं बोलता

और कंधे पर जबरन छुट्टा बैठे

कौए की चोंच

गले में ज़रूरती छेदकर

स्वर यंत्र के इर्द-गिर्द

पकड़ मज़बूत कर रही है

और सचमुच

भूख और भाषा कितनी सगी हैं

कि अकाल की आँखें मुझे घूर रही हैं

लेकिन अब यह भाषा

भखराती नहीं

पहाड़ और नदियों से रचे हुए भूगोल में

शब्दों को आदमियों की तरह

समझा-समझाकर सँभालती है

तभी शंखों या घोंघों के अंदर की

जोंको के ख़ाली घर से

यह गुँगवाती ध्वनि की चीत्कार से

घृणा करती है

भाषा असल बीज से पनपी

फ़सल को पकाने वाली

तेज़ होती धूप का संस्कार भी होती है

जिसमें ज़िंदगी का घिसा हुआ चंदन

उमड़-घुमड़ उठता है

ख़ून में मिलकर बरसते-कड़कते

वज्र में बदल जाता है

बादल हो जाता है

बरस कर बो जाता है

तब अकाल कभी नहीं आता

तब अकाल कहीं नहीं होता

नहीं होता कहीं भी!

स्रोत :
  • रचनाकार : मलय
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

संबंधित विषय

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY