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गिरिजाकुमार माथुर

और अधिकगिरिजाकुमार माथुर

    कुछ सुनसान दिनों को,

    और चाँदनी से ठंडी-ठंडी रातों को,

    पत्रों की दुनिया से भी हम दूर हुए थे;

    आज तुम्हारा सूना-सा संदेश मिला है,

    प्यार दूर का।

    मान-गर्व के दो दिन अभी बिताए मैंने,

    गीतों के उस मेले में।

    मेल मुझे लेकर उड़ती जाती थी,

    रंग-भरे पानी-से चलते उन डिब्बों की एक कोच पर,

    सनसन-सनसन वायु वेग से,

    घनी वन्य नदियों से छन में पार उतर कर,

    पीछे छोड़ नगर-ग्रामों को

    कितनी ही पर्वत-माला की घूमों में से।

    एक सीध में बनी, खिड़कियों में से होकर,

    कमरों का विद्युत्-प्रकाश बाहर पड़ता था,

    तेज़ी से चलती लंबी लकीर बन-बन कर,

    सून-सून करते उन पीछे उड़ते मैदानों में;

    हल्के चाँद-भरे जो अनजानी दूरी तक,

    वन-फूलों की सोंधी-सी सुगंध में डूबे।

    लेकिन मैं जाने कितने पीछे चलता था,

    एक बरस पहिले की इन ठंडी आँखों में :

    इसी तरह का वह रंगीन दूसरा दर्जा

    वायु-वेग से चलता जाता।

    जब दूरी तक फैले-फैले,

    वन, पर्वत, मैदान उतर कर,

    लंबी, लंबी-सी तेज़ी से :

    तुम उस रेशम-सेज-कोच पर,

    देख रहीं उड़ती पहाड़ियाँ खिड़की में से

    एक हाथ पर चिबुक टिकाए;

    साथ-साथ ही,

    वह पहले पियार की यात्रा।

    आज दूर हो,

    प्राणों से, तन से पीड़ित हो :

    मेरी सूनी-सी आँखें हैं,

    सूना-सा मेरा घर, आँगन।

    चहल-पहल है नगर बीच,

    दूर तुम्हारे देश यही सब होता होगा :

    यही धूप, उजली कुँआर की यहीं धूप भी

    पंछी, वायु, यहीं नम, बादल।

    सून-सून करते मैदानों में से होकर,

    मेल जाएगी, निज लंबी-लंबी तेज़ी से

    प्रतिदिन की ही भाँति आज भी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 153)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : गिरिजाकुमार माथुर
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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