नहीं, तय तो पहले से कुछ भी नहीं था
ऐसे ही झगड़ा हुआ था और उसने बीच बाज़ार में
जब मैं अपनी माँ के साथ तरकारी ख़रीद रहा था
उसने पीछे से आकर मेरा कॉलर पकड़ लिया
और दो हाथ मारकर भाग गया
मैं उसको खोज रहा था
तीन दिन तक मैं उसको चारों तरफ़ खोजता रहा
आँख पर वही नाच रहा था
जिधर जाता लगता वही किनारे से गुज़रा
लेकिन चौथे दिन मुझको एक प्रेस में काम मिल गया
और मैं शाम को काम से वापस लौट रहा था
कि अचानक चौक से पच्छिम दाहिने,
गली में मुड़ता हुआ उसका कंधा
झलका
और मैं दौड़ा
और एक ही साँस मैं
रोड से गली में कूदा
और वह दोनों हाथ से माथा पकड़कर ज़मीन पर बैठ गया
मैं भागा
भागता गया
लाइन पार किया
मैदान पार किया
फिर सीधा सड़क धरे
हाथ में अभी भी छुरा था
छुरा नाले में फेंका
भागता गया और मौसी के घर पहुँचा
हाथ ख़ून से तर था
हाथ धोया
कपड़ा फेंका
दूसरा कपड़ा पहना नहाया और वहाँ से बस से
चलकर मोकामा में रेल पकड़कर असाम भाग गया
वहाँ कुछ दिन गिट्टी लादने का काम किया
फिर बोरा में बालू भरने का काम किया तीन रुपया रोज़ पर
वहीं बालू पर तंबू में सोता
लेकिन मन बेचैन था
एक दिन क्या मन में आया
घर चला आया होली का दिन था,
दुश्मन तो लगे हुए थे,
और पकड़ा गया।
बारह साल बीत गए
एक जेल से दूसरे जेल में घूमते
अब तो बहुत से लोग पहचानेंगे भी नहीं
पटना तो बहुत बदल गया होगा
वहाँ कदमकुआँ में पान की दुकान थी दोस्त की
सब कुछ ख़त्म हो गया
हम भी कुछ हो सकते थे
बहुत कुछ हो सकते थे
जिसको जाना था वह तो गया ही
हम भी कौन लोक में रहे
सब कुछ ख़त्म हो गया
माँ मर गई भूख और ग़म से
छोटा भाई मेरी ही तरह आवारा हो गया
एक ही धोवन में झड़ गई सारी माड़ी
दो साल और काटना है यहाँ
उसके बाद?
अब कहाँ काम मिलेगा फिर? कौन रक्खेगा हमको?
आदमी धान का बिजड़ा तो नहीं
कि एक खेत से उखाड़ कर दूसरे में रोप दे कोई!
झड़ना था तो खेत में झड़ता
दाई माई चुन लेतीं
झड़ना था तो राह में झड़ता
चिड़िया चुरगुन चुन लेतीं
अब तो खंखड़ हूँ मैं केवल
दाना था सो घुन खा बैठे
- रचनाकार : अरुण कमल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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