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एक ज़माने की कविता

ek zamane ki kawita

आलोकधन्वा

आलोकधन्वा

एक ज़माने की कविता

आलोकधन्वा

और अधिकआलोकधन्वा

    वहाँ डाल पर फल पकते थे

    और उनसे रोशनी निकलती थी

    हम बहुत तेज़ दौड़ते थे

    मैदान से घर की ओर

    कभी तो आगे-आगे हम

    और पीछे-पीछे बारिश

    ऊँची घास की जड़ों के बीच

    छोट-छोटे फूल खिलते थे

    किसी और ही पौधे से

    घास के अंदर झाँकने पर

    ही दिखते थे

    कभी जब अचानक मेघ घिर आते

    और शाम से पहले शाम हो जाती

    माँ हमें पुकारती हुई

    गाँव के बाहर तक जाती

    अगर हम देर तक जगे होते

    तो अँधेरे में कई तरह की आवाज़ें सुनते

    जिन्हें दिन में कभी नहीं सुन पाते

    कुएँ में डोल डुबोने की आवाज़

    जानवरों की भारी साँस

    कोई अकेला पक्षी ऊपर तारों के बीच

    बोलता जाता हुआ

    फ़सल की कटाई के समय

    पिता थके-माँदे लौटते

    तो माँ

    कितने मीठे कंठ से बात करती

    काली रात बहुत काली होती थी

    सफ़ेद रात बहुत सफ़ेद होती थी

    बहन की सहेली थी सुजाता

    पोखर के घाट पर गाती थी

    एक लड़का था घुँघराले बाल वाला दिवाकर

    छिपकर उसका गाना सुनता

    एक दिन सुजाता चली गई बंगाल

    उसका परिवार भी

    और दिवाकर रह गया बिहार में

    कई लोग गाँव छोड़कर चले जाते

    फिर कभी वापस नहीं आते

    बरसात में चलती पुरवाई

    बहन के साथ हम

    बाग़ीचे में भटकते

    बहन दिखाती कि एक पेड़ कैसे भीगता है

    ऊपर पत्तों से चू रहा होता पानी

    जबकि भीतर की शाख़ें

    बिल्कुल कम गीली

    और नीचे का मोटा तना तो

    शायद ही कभी पूरा भीगता

    वहाँ छाल पर हम गोंद छूते

    बाग़ीचे में हर ओर एक महक होती

    ख़ूब अच्छी लगती

    माँ जब भी नई साड़ी पहनती

    गुनगुनाती रहती

    हम माँ को तंग करते

    उसे दुल्हन कहते

    माँ तंग नहीं होती

    बल्कि नया गुड़ देती

    गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते

    जब माँ फ़ुरसत में होती

    तो हमें उन दिनों की बातें सुनाती

    जब वह ख़ुद बच्ची थी

    हमें मुश्किल से यक़ीन होता

    कि माँ भी कभी बच्ची थी

    दियाबाती के समय माँ गाती

    शाम में रोशनी करते हुए गाना

    उसे हर बार अच्छा लगता

    माँ थी अनपढ़

    लेकिन उसके पास गीतों की कमी नहीं थी

    कई बार नए गीत भी सुनाती

    रही होगी एक अनाम ग्राम-कवि

    शाम की रोशनी के सामने वह गाती

    हम सभी भाई-बहन उसके बदन से लगकर

    चुप हो उसे सुनते

    वह इतना बढ़िया गाती कि लगता

    वह कोई और काम करे

    लेकिन तभी उसे जाना पड़ता रसोई में

    आँचल की ओट में दीप की लौ को

    हवा से बचाती

    वह आँगन पार करती

    गोधूलि में नीम के नीचे से

    हम उसे देखते रसोई में जाते हुए

    जैसे-जैसे रात होती जाती

    हम माँ से तनिक दूर नहीं रह पाते

    आज सालों बाद भी मैं नहीं भूला

    माँ का शाम में गाना

    चाँद की रोशनी में

    नदी के किनारे जंगली बेर का झरना

    इन सबको मैंने बचाया दर्द की आँधियों से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दुनिया रोज़ बनती है (पृष्ठ 23)
    • रचनाकार : आलोकधन्वा
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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