पता है? कहती वह शुरू करती
तो सच-सच बता देने का मन होता
कि ना, लापता है कब से
और होने के ठिकानों से दूर
हैं भी या नहीं कहना तक कठिन लगे जहाँ
वहाँ है, जाने के वक़्त की शुरुआत में
जैसे हर पल रात
और उसकी देह में बहती नदी
और हर पल ग़ायब यह मकान
और दीवारें और सड़कें और लोग
फिर थकान में लस्त, बिस्तर पर बिखर जाता अंग-अंग
सोचता कि कितने तो सुख भरे रंग थे अभी चारों ओर
धूल और पत्तियाँ और जल और आकाश
और भी अनगिन अनामित वस्तुओं को धारे
वाक्यों का वह अच्छा-ख़ासा समृद्ध विन्यास
टूटते-टूटते सिफ़र के पास
दम तोड़ते रंगों में धब्बों-सी आकृतियाँ
बेडौल और विकृत-सा कुछ रचते-गढ़ते इन शब्दों से
अब क्या कहूँ तुम्हें
कुछ भी पता नहीं चलने के इस समय भी
जकड़े हैं मोह और द्रोह का संसार
रस्साकशी के खेल में कभी इधर कभी उधर
लापता मगर मौजूद मेरी लिखत का निरर्थ
मुग्ध मुखरता के अराजक विस्तार में
मौन के रहस्य-सा गूँजता है
रोम-रोम के प्रेमातुर अनुभव में
बनता है एक घर कोहरे का
फिर उसी पल बिखरता है।
- रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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