प्रत्येक पुरागाथा-स्थिति में मैंने अपनी कल्पना की है
शुरुआत में सब कुछ ठीक रहता है
फिर जब मैं अमर्ष में भरकर अपना माथा झटकता हूँ
तो फूटे अलूमीनियम की ढनढनाहट के साथ
मेरा मुकुट विग को लिए-दिए भरी सभा में गिरता है
मेरे आदेश पर पहरेदार एक-दूसरे की तरफ़ देखते हुए
नाक छिनकने लगते हैं या पोशाब करने चले जाते हैं
और जिरहबख़्तर के नीचे अंडकोश पर चलती हुई चींटी को
राजमहिलाओं की उपस्थिति में न मसलने को मजबूर
एक जाँघ को दूसरी जाँघ पर रखते हुए मैं
अपने मालिश वाले की सेवाओं का स्मरण करता हूँ
जो मेरे अंदर तक के सुख दुख का साथी है
बतलाओ क्या हो जाता है
बलवे राज्यक्रांति और सत्ता-परिवर्तन के बाद
मैं पूछता हूँ राजचित्रकार द्वारा ‘उकेरे गए’ उस युवा अक्स से
उकड़ूँ बैठने से क्यों फूहड़ हो जाते हैं परिधान
क्यों टूट जाती हैं ध्वजाएँ इरादों की
एक धोखे से दूसरे धोखे के बीच वाले अंतराल में
लोग क्यों इस क़दर लोमहर्षित होते हैं और सरासर आमंत्रित करते हैं
और फिर वही माँगते हैं एक नया सिर और आदर्श वाक्य
सभासद क्यों बैठते हैं दीवार से लगी अँधेरी कुर्सियों पर
कौन ऐन मौक़े पर काट देता है तार लाउडस्पीकरों के
मेरे चेहरे वाले डाक टिकट क्यों नहीं चिपकाते बच्चे अब कॉपियों में
हथेली पर घिसकर मेरे सिक्कों को बस कंडक्टर क्यों लौटाता है
क्या इसी तरह लौटा जा सकता है समय में
एक निरंतर प्रचलित क्षण बन सकने के लिए—
इतिहास में या तो सतृष्ण मृत्यु है या विस्फारित हत्याकांड
मैं नहीं चाहता अब उठाईगीर के बाद व्यवस्थापक रहना—
किंतु गैलरी में महिलाएँ आँखों पर रूमाल ढँके हुए
प्रतीक्षा में हैं कि ठहरा हुआ हाथ नीचे आए
और कुछ नया हो
उनके ऋतुमती होने से पहले
उस और इस क्षण के बीच सिर्फ़ स्मरण ही कर सकता हूँ
जब एक चीज़ के लिए मेरा सब नहीं छीना गया था—
रंग देखने के लिए आँखें
धरती के घूमने और घूमने के बीच की गंध
और औरत के साथ सोने की स्वस्थ इच्छा—
दूसरे चेहरों के पसीने को हाथ के विरल बालों में
और मसूढ़ों से दबाए गए अपने अँगूठे को महसूस करते हुए
मैं रोज़ जाता था
एक व्याख्याहीन पशु को लड़ाई की अगली क़िस्त चुकाने—
झाड़-फ़ानूस के नीचे पदचापों के दुःस्वप्न देखना
तब तक मेरा व्यवसाय नहीं बना था।
- पुस्तक : पिछला बाक़ी (पृष्ठ 72)
- रचनाकार : विष्णु खरे
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 1998
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