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दुःख के बारे में

duःkh ke bare mein

विजय कुमार

विजय कुमार

दुःख के बारे में

विजय कुमार

और अधिकविजय कुमार

    दुःख के बारे में

    कोई कुछ कहता नहीं था इन दिनों

    लोग चुप-चुप थे

    दुःख कहीं नहीं था

    हवा में धूल उड़ती रहती थी

    दुपहर जाने कब ढल जाती थी

    मित्र राज़ की बात बताना चाहता था

    टेलीफ़ोन पर सुनाई नहीं देती थी आवाज़

    कुछ दरवाज़े कभी खुलते नहीं थे

    बाहर सीढ़ियों से पचास लोग उतर जाते थे

    कि किताब बंद की बंद पड़ी रहती थी

    टपकता था नलका रात भर

    एक दिन बालों पर चाँदनी उतर आती थी

    दुःख कहीं नहीं था

    एक आदमी हालाँकि

    काफ़ी देर बोलता रहता था

    हाथों को छूते रहते थे हाथ

    और मालूम नहीं पड़ता था

    लोग सालों तक साथ-साथ लेटे रहते थे

    और एक दिन अचानक

    उठकर विपरीत दिशाओं में चले जाते थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चाहे जिस शक्ल से (पृष्ठ 22)
    • रचनाकार : विजय कुमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1995

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