मेरी बस्ती के लोग ये
न जाने किसलिए
चुपचाप रुक गए हैं
है दूर तक जहाँ भी
यह नज़र जा के ठहरे
'यूकेलिप्टस' के ऊँचे-ऊँचे
पेड़ों की श्वेत कालिख
इस ठहरे चाँद के संग
ठहरी-सी ज़िंदगी में
धरती के वक्ष से
आर्द्रता सुखाती।
ठहरे हैं लोग सारे
शायद नहीं जानते
कि यह अँधेरी कालिख
कैसे लगा रही है
लाशों के ढेर लाखों।
या आँखें बंद करके
सहमे डरे-डरे से
कुछ कहने से झिझकते
झूठे क़सीदे लिखते
कालिख न देखते हैं।
जबकि इस धरती पर
जाती जहाँ नज़र है
इक कालिख अजब-सी
है नज़र घेर लेती।
या शायद बची नहीं किंचित् भी
मेरी आँखों में रोशनी।
शायद तभी तो कोई
मेरा गला दबाकर
मुँह को भींचता हुआ
कालिख बिखेरता है
चहुँ ओर कोई जैसे
कविता भी थम गई है।
कुछ यूँ लगता है
बस्ती में जैसे मेरी
हर चीज़ थम गई है।
रुक सी गई कहानी
मनुष्य खड़े हैं कुछ ऐसे
जैसे चंदा के पास
थम से गए हैं तारे
देखकर लाशों के ढेर
वे इक कशमकश के चलते
जड़ हो गए हैं सारे
चिरकाल से जैसे
कवियों की कल्पना को
ज़ंग-सा लग गया है
क़लमें भी थम गई हैं
काग़ज़ भी रुके-रुके से हैं
भयभीत-सी है कविता
जड़वत ही हो गई है
और समूचे इस अदब को
चाट रहे हैं असंख्य कीड़े।
कर रहे हैं कुलबुल
ज्यों पीली रंगत लिए
भूखा यतीम बचपन।
सागर का खारा पानी
जैसे युगों-युगों से
सागर का ही कटाव कर रहा है।
इसी तरह ही
'पंजफुल्ली' जड़ी भी
अपना फैलाव करती
झाड़ी-सी बन गई है
जो कि अदब के हृदय को
निशि-दिन ही भेदती जा रही है।
बस्ती की मेरी कविता
'पंजफुल्ली' जड़ी पर फिर भी
बलिहारी जा रही है।
ख़ानाबदोश क़ौमों ने
भूखी बीमार नस्लों ने
ख़ूनी विरासतों ने
विद्रोह के गाड़ झंडे
क़ब्रों से शव निकाल
दफ़नाने मानवों को
बंजर ज़मीं के ऊपर
दो गज़ ज़मीन ढूँढ़ ली है।
यह बस्ती भी खड़ी है
मानो न देखते हों
उदयास्त होता सूरज।
या फिर से कोई राम
सीता का त्याग करके
किसी अश्वमेध यज्ञ की
कहीं सोच तो न पालता हो
या फिर कलिंग के अनंतर
संन्यास ले रहा है
योद्धा अशोक का सब्र
या गगन रक्तरंजित
चुपचाप सोचता हो
अवतार कोई फिर से
उतरेगा इस धरती पर।
पर क्यों ये मेरी नज़रें
धरती की ज़ख़्मी छाती के
घाव गिन रही है।
पल-पल मुझे है कहती
सूरज ठहर गया है।
मैं भाग जाऊँ कैसे
सब जान के हक़ीक़त
नहीं वर्ड्सवर्थ, शेली
न कॉलरिज ही हूँ
मैं फिर चुप्पी साधे क्योंकर
पलायन की सोच पाऊँ।
न मैं टैगोर ही हूँ
इतना कहूँ मैं कैसे
सतरंगी साँझ कोई
बस्ती सजा रही है।
ये किसकी चीख आख़िर
पल-पल मुझे रुलाती
ये कौन है जो मेरा
खाए कलेजा निशि-दिन
मैं रोते-बिलबिलाते
लोगों को देख मरते
दरवाज़ा कैसे अपने
मैं घर का बंद कर लूँ
मैं कैसे मूँद पलकें
चुपचाप सो सकूँगा?
है दूर तक जहाँ भी
यह नज़र जाकर ठहरे
नज़रों को घेर लेती
कालिख कोई अजब-सी
ऐसा चलेगा कब तक?
कब तक खड़े रहेंगे?
ये लोग नज़रें फेरे
खंभों की जलती-बुझती
इन बत्तियों के अंग-संग
आख़िर ये ज़ंग कब तक
कवियों की कल्पना पर
ऐसे लगा रहेगा?
पंजफुल्ली : फूलों की एक जंगली झाड़ी, जिसे जानवर नहीं खाते।
- पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 168)
- संपादक : ओम गोस्वामी
- रचनाकार : अभिशाप
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2006
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