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मेरा दिल

mera dil

अनुवाद : ज्ञान सिंह

मोहन लाल सपोलिया

और अधिकमोहन लाल सपोलिया

    मेरा दिल है गहरा नीला सागर

    जिसके ऊपर रंग-बिरंगे

    कई तरह के फूल खिले हैं

    इक-दूजे को खाने हेतु मुँह हैं बाए

    इक-दूजे से बचने हेतु दौड़ रहे हैं

    नीचे गहरे पानी में हैं सीपों ने कुछ दिए छुपा

    अपने भीतर सुच्चे मोती

    मगर हैं जिनके दाएँ-बाएँ

    मुँह हैं बाए सिर उठाए, आँखों से अंगार उगलते

    उठती है जब लहर बड़ी तो छोटी लहरें जनती जाती

    फिर वे लहरें इक दूजी के पीछे भागें

    पर यह दौड़ है तट तक सीमित

    लहर किनारे जो भी पँहुचे

    झट से ही वह खो जाती है

    जाने कहाँ वह सो जाती है

    मानो छुड़ा लिया है उसने

    दूजी लहर से पीछा अपना

    दूजे तट पर सिल पत्थर-सी

    आशा मेरी बाट जोहती प्यासी-प्यासी

    उस लहर की

    स्नेहसिक्त जब वेग लहर का

    तनिक ठहरकर ज़रा निहारे

    अंजुलि भर इक पानी दे दे

    है यह सागर कितना गहरा

    यह सागर कितना चंचल

    धीरज का है पुंज कोई यह

    मेरा दिल केवल मेरा

    सारी सृष्टि का यह दिल है

    इसी विचार ने मुझे छिपाया

    अंतस् की गहराइयों में।

    मेरा दिल इक राजा का है

    अनगिन, अनमिन एक ख़ज़ाना

    जिसके भीतर लाल जवाहर हीरे मोती

    कितने ही हैं रंग-बिरंगे माणिक इसमें

    कितने ही फनियाले सूंकें आगे-पीछे

    हृदय के तम में अपने

    चिंतन का मैं दीप जलाकर

    इनसे बचता, कुछ सकुचाता

    देख रहा हूँ जगमग-जगमग जगती दुनिया

    कोई बड़ा है कोई है छोटा

    चल रहा हूँ सबको उठाए बारी-बारी

    तौल परख के छोड़े जाऊँ इस आशा से

    जाने मुझको

    इनकी कोई पहचान मिले

    कि कौन है सच्चा, कौन है झूठा

    अभी भी मैं पहचान पाया

    पता नहीं क्यों कब तक ऐसे

    करूँ दलीलें समझ आए

    मेरा दिल है टूटा-फूटा-सा इक खंडहर

    सदियों अपने श्वास दबाए,

    समय से लगती डरी-डरी-सी

    जगह-जगह हैं पत्थर और ईंटों के ढेर

    जिनसे झाँके राह निराली

    मानो जैसे ढूँढ़ रही हो कोई तहख़ाना

    वह तहख़ाना जिसमें

    लाखों मासूमों की चीख़ें

    व्याकुल सिसक रही हों अपने मुँह को ढाँपे

    क्योंकि इनकी अपनी दुनिया, अपनी गाथा

    और दीवारें हैं कुछ छत विहीन

    टूटी है कोई, टूटन को कोई आतुर

    जिनके सिर हैं टेढ़े-मेढ़े

    मानो बैठी विधवा अपने बाल बिखेरे

    किसी-किसी दीवार का कोई

    सिर दिखता तो धड़ है ग़ायब

    पाँव सुरक्षित धाक नहीं है

    मूर्त वह तो ऐसी-जैसे

    इस सृष्टि पर

    हुआ कहीं हो क़तल घिनौना

    कहीं-कहीं से रेत है गिरता

    लगता है जैसे अनगिन प्रहारों पर

    रोदन करता राजमहल है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 190)
    • संपादक : ओम गोस्वामी
    • रचनाकार : मोहनलाल सपोलिया
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

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