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इज़्ज़त

izzat

दामिनी यादव

दामिनी यादव

इज़्ज़त

दामिनी यादव

और अधिकदामिनी यादव

    यह बात इतनी ख़ास भी नहीं

    मगर इतनी आम भी नहीं,

    बताती हूँ आपको औरतों की सेहत से जुड़ा

    ये क़िस्सा-ए-मुख़्तसर

    आपने भी देखा होगा ये अक्सर,

    सड़क के किनारे या झाड़ियों-पेड़ तले मुँह किए

    या किसी दीवार की तरफ़ चेहरा छिपाए

    बहुत से मर्द करते रहते हैं

    ‘लघु-शंकाओं’ के दीर्घ निवारण।

    कभी बेचारे तन्हा खड़े हो जाते हैं,

    कभी दो-तीन मिलकर

    पेंच-से-पेंच लड़ाते हैं,

    बिना म्यूनिसिपालिटी की देख-रेख के ही

    सारे पेड़-झाड़ियाँ हरे-भरे नज़र आते हैं,

    क्योंकि इन्हें सींचने का ठेका

    बड़ी ज़िम्मेदारी से सिर्फ़ पुरुष ही उठाते हैं।

    बिना बरसात ही दीवारें धुल-पुछ जाती हैं,

    क्योंकि पुरुषों की लघुशंकाएँ रुक नहीं पाती हैं।

    क्या पुरुषों की लज्जा, शर्म या इज़्ज़्त नहीं होती?

    बीच-चौराहे से मौहल्ले-चौपाल तक

    भरे बाज़ार से लेकर अपने घर-ससुराल तक

    जब देखो ‘वहाँ’ खुजाते रहते हैं,

    क्या वे इस तरह से बार-बार

    अपने पुरुषत्व का भरोसा जुटाते रहते हैं?

    और झेंपते-झिझकते भी नहीं!

    क्या पुरुषों की लज्जा, शर्म या इज़्ज़्त नहीं होती?

    हम औरतों की लघुशंकाएँ

    बस शंकाएँ बनी रह जाती हैं।

    अक़्सर आसानी से नहीं मिलता

    कोई ‘सुलभ’ ठीया, कोई शौचालय, कोई मुक़ाम

    और सब्र बाँधे हो जाती है

    सुबह से शाम, क्योंकि

    सब कहते हैं

    औरतों की इज़्ज़त होती है

    और औरतें ही इज़्ज़त होती हैं।

    पुरुषो! है हिम्मत तो दिखाओ हमारी ही तरह

    रोक कर पाँच-सात घँटे अपनी ‘नेचर कॉल’

    जानो-समझो क्या होती है उसे रोकने की तकलीफ़

    कैसे बजते हैं फिर पेट में नगाड़े-ढोल,

    किस तरह पड़ता है उसका

    सेहत पर असर

    ये जान पाओगे सिर्फ़ और सिर्फ़ औरत होकर।

    अगर हम जींस पहनें

    तो किसी कॉलेज में,

    बैन लगवा लेती हैं,

    स्कर्ट-स्लीवलेस पहनने पर ख़ुद को

    ‘आइटम’ या ‘माल’ कहला लेती हैं,

    दिन में घर-भर संभाले रखने पर भी

    पड़े-पड़े रोटी तोड़ने के ताने पाती हैं,

    और दहलीज़-परे कुछ करने पर

    दिन-ढले से पहले लौट पाएँ तो

    कुल्टा भी बन जाती हैं और

    बने रहने के जोखिम भी उठाती हैं।

    इस घर से उस घर तक की

    पगड़ी का मान जुटाती हैं,

    कर लें अगर प्यार या मनमानी कभी

    तो बीच चौराहे-चौपाल

    बेसूत कर दी जाती हैं।

    चलो, आपने समझाया

    और हमने समझा

    कि सारी मर्यादाएँ और मान

    हम माँ, बहन, बीवी, बेटियों

    से ही होती हैं और

    इनके ठींकरें भी

    हमीं ढोती हैं, पर

    क्या पुरुषों की लज्जा, शर्म या इज़्ज़्त

    वाक़ई नहीं होती?

    स्रोत :
    • रचनाकार : दामिनी यादव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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