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उषा उठी मुसुकाइ

usha uthi musukai

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

उषा उठी मुसुकाइ

श्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

और अधिकश्यामसुंदर मिश्र 'मधुप'

    जागु किसनवा भोरु भवारे, उषा उठी मुसुकाइ॥

    बड़कइया पटिया मा चलिकै जल्दी ते हरु नाधु,

    अरे! विस्व की सेवा का ब्रतु रे साधक तुइ साधु।

    भगत प्रपंची संखु बजावैं, बैठे पल्थी मारि,

    मुला रजट्टर मा इसुर के, सच्ची भगति तोहारि।

    जल्दी दे काकुन के बीजा, खेत-खेत बिथराइ,

    जागु किसनवा भोरु भवा रे, उषा उठी मुसुकाइ॥1॥

    देखु पसीना तोर गिरी जहँ, भूमि उठी पुलियाइ,

    परिहैं तोरे जहाँ चरन रे, उसरौ उठी सिहाइ।

    उकिठी भुइँ नन्दनु बनु होइ, बंजरु बनी कछारु,

    तोरे पावन मा पारसु है उगिली स्वान पहारु।

    अरे, जुगन की भूखी जननी, तुहिका रही जगाइ,

    जागु किसनवा भोरु भवा रे, उषा उठी मुसुकाइ॥2॥

    उठौ किसनवा विस्व-देवता तुमका हेरि रहे,

    उठौ किसनवाँ सेसनाग हैं तुमका टेरि रहे।

    जो तुम सोयउ और देर तक, तौ बटिया परि जाइ,

    चलु ढेलन मा नाधु पटेलवा, दुखु दारिदु दरि जाइ।

    तोरिइ धरती तोरिइ परती, तोरइ जुगु गा आइ,

    जागु किसनवा भोरु भवा रे, उषा उठी मुसुकाइ॥3॥

    तुइ परजा है, तुइ राजा है, सारी सृष्टि तोहार,

    आजु विस्व के सिंहासन हैं, तोहिका रहे जोहारि।

    आजु तिहारे संकेतन पर ब्रह्मा नाचैं नाचु,

    सारी सृष्टि झूठ सी लागइ, तोहे जगत मा साँचु।

    अरे! विरह मा तोरे धरती देखु रही डिंड़ियाइ,

    जागु किसनवा भोरु भवा रे उषा उठी मुसुकाइ॥4॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : घास के घरउँदे (पृष्ठ 29)
    • रचनाकार : श्यामसुंदर मिश्र ‘मधुप’
    • प्रकाशन : आत्माराम एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली
    • संस्करण : 1991

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