इच्छा किंचित् भी न रही अब...
ichchha kinchit bhi na rahi ab. . .
ज्ञानराज माणिकप्रभु
Gyanraj Manikprabhu
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इच्छा किंचित् भी न रही अब...
ichchha kinchit bhi na rahi ab. . .
Gyanraj Manikprabhu
ज्ञानराज माणिकप्रभु
और अधिकज्ञानराज माणिकप्रभु
इच्छा किंचित् भी न रही अब पूजन, जप, तप, अर्चन की।
नहीं कामना मेरे मन में प्रभो! तुम्हारे दर्शन की॥
द्रष्टा का संबंध दृश्य से ही दर्शन कहलाता है।
और प्रभो संबंध सदा ही द्वैत-भाव दर्शाता है।
तृप्ति कहाँ से होगी ऐसे दर्शन से अंतर्मन की॥
दृश्य सदा जड़ और विकारी, नश्वर और अशाश्वत है।
प्रभु चेतन, अविकारी, चिद्धन, अजर, अमर औ' शाश्वत है।
गणना कैसे करूँ दृश्य में सच्चित्सुख के लक्षण की॥
दर्शन देकर मुझे प्रभो तुम दृश्य स्वयं बन जाओगे।
सोचो अपनी चेतनता तज क्या तुम जड बन जाओगे।
जड बनकर काटोगे कैसे गांठ प्रभो भवबंधन की॥
ये घट है, ये पट है, मठ है, ऐसा होता ज्ञान मुझे।
ज्ञेय नहीं तुम घट-पट-मठवत् इसका होता भान मुझे।
मूर्ख किया करते हैं इच्छा द्रष्टा के ही दर्शन की॥
- रचनाकार : ज्ञानराज माणिकप्रभु
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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