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गड़रिए

gaड़ri.e

प्रभात

प्रभात

गड़रिए

प्रभात

 

एक

वे शर्मीले होते हैं 
इतने गरब-गुमान रहित 
कि कोई उनकी तरफ़ देखता है 
तो वे दूसरी तरफ़ देखने लगते हैं 
गर्दन घुमा लेते हैं, आँखें झुका लेते हैं 
ज़मीन में देखने लगते हैं या आसमान में 
वे निर्जन में रहते हैं 
इंसानों की संगत के वे उतने अभ्यस्त नहीं है जितना प्रकृति की संगत के 
उनका सारा जीवन रूँखों को देखने में गुज़रता है 
रूँखों पर फूटते गोंद और खिलते फूलों को देखने में 
और सुनने में
ये हवा के घासों में चलने की आवाज़ है 
ये हवा के पेड़ों में चलने की आवाज़ है 

दो

वे शर्मीले होते हैं 
वे झाड़ों के सामने खुलते हैं 
वे झिट्टियों के लाल-पीले बेरों से बतियाते हैं 
वे बीहड़ के गड्ढों में पानी पीती हुई अपनी शक्ल से बतियाते हैं

वे आकाश में पैदल-पैदल जा रही बारिश के पीछे-पीछे 
दूर तक जाते हैं अपने रेवड़ सहित 
वे आकाश से पैदल-पैदल आ रहे जाड़े के पीछे-पीछे 
वापस आते हैं अपने रेवड़ सहित 

नक्षत्र उनकी भेड़ों को आकाशगंगा कहते हैं 
आकाश कहता है—
गड़रिए 
चंद्रमा हैं पृथ्वी पर चलते हुए

 
स्रोत :
  • रचनाकार : प्रभात
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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