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दे दिया जाता हूँ

de diya jata hoon

रघुवीर सहाय

रघुवीर सहाय

दे दिया जाता हूँ

रघुवीर सहाय

और अधिकरघुवीर सहाय

    मुझे नहीं मालूम था कि मेरी युवावस्था के दिनों में भी

    यानी आज भी

    दृश्यालेख इतना सुंदर हो सकता है :

    शाम को सूरज डूबेगा

    दूर मकानों की क़तार सुनहरी बुंदियों की झालर बन जाएगी

    और आकाश रंगारंग होकर हवाई अड्डे के विस्तार पर उतर आएगा

    एक खुले मैदान में हवा फिर से मुझे गढ़ देगी

    जिस तरह मौक़े की माँग हो :

    और मैं दे दिया जाऊँगा।

    इस विराट नगर को चारों ओर से घेरे हुए

    बड़े-बड़े खुलेपन हैं, अपने में पलटे खाते बदलते शाम के रंग

    और आसमान की असली शक्ल।

    रात में वह ज़्यादा गहरा नीला है और चाँद

    कुछ ज़्यादा चाँद के रंग का

    पत्तियाँ गाढ़ी और चौड़ी और बड़े वृक्षों में एक नई ख़ुशबूवाले गुच्छों मे सफ़ेद फूल

    अंदर, लोग ;

    जो एक बार जन्म लेकर भाई-बहन, माँ-बच्चे बन चुके हैं

    प्यार ने जिन्हें गलाकर उनके अपने साँचों में हमेशा के लिए

    ढाल दिया है

    और जीवन के उस अनिवार्य अनुभव की याद

    उनकी जैसी धातु हो वैसी आवाज़ उनमें बजा जाती है

    सुनो सुनो, बातों का शोर;

    शोर के बीच एक गूँज है जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं

    —कितनी नंगी और कितनी बेलौस!—

    मगर आवाज़ जीवन का धर्म है इसलिए मढ़ी हुई करतालें बजाते हैं

    लेकिन मैं,

    जो कि सिर्फ़ देखता हूँ, तरस नहीं खाता, चुमकारता,

    क्या हुआ क्या हुआ करता हूँ।

    सुनता हूँ, और दे दिया जाता हूँ।

    देखो, देखो, अँधेरा है

    और अँधेरे में एक ख़ुशबू है किसी फूल की

    रोशनी में जो सूख जाती है

    एक मैदान है जहाँ हम तुम और ये लोग सब लाचार हैं

    मैदान के मैदान होने के आगे।

    और खुला आसमान है जिसके नीचे हवा मुझे गढ़ देती है

    इस तरह कि एक आलोक की धारा है जो बाँहों में लपेटकर छोड़

    देती है और गंधाते, मुँह चुराते, टुच्ची-सी आकांक्षाएँ बार-बार

    ज़बान पर लाते लोगों में

    कहाँ से मेरे लिए दरवाज़े खुल जाते हैं जहाँ ईश्वर

    और सादा भोजन है और

    मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था।

    सिर्फ़ उनसे मैं ज़्यादा दूर-दूर तक हूँ

    कई देशों के अधभूखे बच्चे

    और बाँझ औरतें, मेरे लिए

    संगीत की ऊँचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैं

    और ज़िंदगी के अंतिम दिनों में काम करते हुए बाप काँपती साइकिलों पर

    भीड़ में से रास्ता निकालकर ले जाते हैं

    तब मेरी देखती हुई आँखें प्रार्थना करती हैं

    और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा चुका होता है।

    किसी शाप के वश बराबर बजते स्थानिक पसंद के परेशान संगीत में से

    एकाएक छन जाता है मेरा अकेलापन

    आवाज़ों को मूर्खों के साथ छोड़ता हुआ

    और एक गूँज रह जाती है शोर के बीच

    जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं

    नंगी और बेलौस,

    और उसे मैं दे दिया जाता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 37)
    • संपादक : सुरेश शर्मा
    • रचनाकार : रघुवीर सहाय
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1994

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