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दस्तकें

dastken

ममता बारहठ

ममता बारहठ

दस्तकें

ममता बारहठ

दरवाज़े से लगकर

दस्तकें सो गईं

धीरे-धीरे पास की

सीली हुई दीवारों से

फूटने लगी है जड़ें

दस्तकों की

ये दरख़्त जो आज

पुराना और जर्जर नज़र आता है

कोई दस्तक सोई है

भीतर उसके पानी की तरह

ऐसे उठती हूँ

अपनी जगह से

ज्यों कोई खटका हुआ

बंद बाड़े में कोई प्राण

साँकलों-सा खड़खड़ाता है

जैसे कोई हाथ भूले से लगता है

धक् से हृदय पर

उठकर बैठ जाती हूँ

रात के अँधेरे में

अँधेरे की तरह गहराती हूँ

पैर नहीं सह पाते अब

भार एक बंद दरवाज़े का

नींद मेरी

दूर एक शहर की

गलियों में फिरती हुई

अनजान घरों के दर पर

दस्तक-सी जागती है।

स्रोत :
  • रचनाकार : ममता बारहठ
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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