सच यही है
सच यही है
मंदिर में आरती गाते हुए भी
नज़दीक की
मस्जिद तोड़ने की लालसा
हमारे भीतर जागती रहती है
और मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हुए भी
पास के मंदिर के बारे में भी
नागफ़नी की तरह
वैसी ही हलचल उगती है।
बात एक ही है
पहले सांप्रदायिक दंगे कराओ
फिर शांति-मार्च के ढेर सारे आयोजन
सच यही है
क़ब्रों पर फूल उगाने जैसा।
सच की कल्पना
कितनी कड़वी होती है
और वीभत्स भी
एक सच
जो पहले से ही तैयार होता है।
दूसरा सच
बाद में बनाया जाता है।
जैसे पहले क़ब्र बनाना—
फिर उस पर फूल उगाना
सच यही है।
घर के एक सुनसान कोने में
लुटी-पिटी-सी
कच्ची ज़मीन पर पसरी
एक अदद औरत।
गुमसुम-सी, अपने आपमें खोई हुई
घर से गए
अपने आदमी के लौटने की
मीठी कल्पना सीने से लगाए
दरवाज़े की ओर आँखें बिछाए
पिछले एक दिन और एक रात से
इंतज़ार कर रही है।
सच यही है।
बाहर
पुलिस की पदचापों से धरती गूँजती है
और भीतर उसका दिल दहलता है
पुलिस के बूट, ज़मीन को नहीं
उसकी छाती को रौंदते हैं जैसे।
एक सच
जो परसों रात उसने देखा था।
दूसरा सच
वह देखना नहीं चाहती
घर से गया हुआ उसका मर्द
अब कभी वापस लौटकर नहीं आएगा
सच यही है।
घर से गए
उसके आदमी की आँखें
किसी रामपुरिया चाक़ू से कटी-फटी
किसी कूड़े के ढेर के नज़दीक पड़ी होंगी
या उसका झुलसा चेहरा
और जला हुआ शरीर
किसी नहर-नदी-नाले के पास पड़ा होगा
सच यही है।
पुलिस लाख कोशिश करे भी
तो उस आदमी के हत्यारे को
पकड़ने में सफल नहीं होगी
क्योंकि हमारे भीतर
कहीं न कहीं
किसी न किसी रूप में
वह हत्यारा बैठा है
सच यही है।
हम आदमी भी हैं
और हत्यारे भी।
पहले लाशें बिछाते हैं
फिर राजनीति करते हैं
क्योंकि लाशें बिछाना
और लाशों की राजनीति करना
दोनों ही हमारी नियति बन चुकी है।
सच यही है।
घर-घर जाकर
कोई रोटी नहीं बाँटता
ढेर-सारे त्रिशूल, चाक़ू, कट्टे, दस्ती बम
बिन माँगे मिल जाते हैं।
जिन्हें हाथों में
नेज़ें-भालों की तरह सँभाले
हमारे भीतर हलाकू-चंगेज़ी उभर कर
सड़कों पर उतर आते हैं
हमारी संस्कृति-परंपरा-रिश्ते
पीछे छूट जाते हैं।
आगे होती है
एक सर्पाकार आग
जो पहले आदमी को डँसती है
फिर मकान-दुकान जलाती है
और गाँव-क़स्बों के
हरे-भरे खेत-खलिहानों को
राख बनाती हुई
शहरों को भयावह जंगल में
बदल देती है।
सच यही है।
उसी राख को रौंदते हुए
क़ौम की ख़िदमत करने
अपने-अपने परचम लिए
हम निकल पड़ते हैं
उजड़ी बस्तियों को आबाद करने
बिल्कुल क़ब्रों पर फूल उगाने जैसा
सच यही है।
घर-घर में सूनी आँखों से
एक-एक औरत
घर से बाहर गए
अपने-अपने आदमी के
लौटने का इंतज़ार करती है,
सच यही है
वह क़तरा-क़तरा होकर
जीती है
और क़तरा-क़तरा होकर
मरती है।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 108)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : मोहनदास नैमिशराय
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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