Font by Mehr Nastaliq Web

सच यही है

sach yahi hai

मोहनदास नैमिशराय

और अधिकमोहनदास नैमिशराय

    सच यही है

    मंदिर में आरती गाते हुए भी

    नज़दीक की

    मस्जिद तोड़ने की लालसा

    हमारे भीतर जागती रहती है

    और मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हुए भी

    पास के मंदिर के बारे में भी

    नागफ़नी की तरह

    वैसी ही हलचल उगती है।

    बात एक ही है

    पहले सांप्रदायिक दंगे कराओ

    फिर शांति-मार्च के ढेर सारे आयोजन

    सच यही है

    क़ब्रों पर फूल उगाने जैसा।

    सच की कल्पना

    कितनी कड़वी होती है

    और वीभत्स भी

    एक सच

    जो पहले से ही तैयार होता है।

    दूसरा सच

    बाद में बनाया जाता है।

    जैसे पहले क़ब्र बनाना—

    फिर उस पर फूल उगाना

    सच यही है।

    घर के एक सुनसान कोने में

    लुटी-पिटी-सी

    कच्ची ज़मीन पर पसरी

    एक अदद औरत।

    गुमसुम-सी, अपने आपमें खोई हुई

    घर से गए

    अपने आदमी के लौटने की

    मीठी कल्पना सीने से लगाए

    दरवाज़े की ओर आँखें बिछाए

    पिछले एक दिन और एक रात से

    इंतज़ार कर रही है।

    सच यही है।

    बाहर

    पुलिस की पदचापों से धरती गूँजती है

    और भीतर उसका दिल दहलता है

    पुलिस के बूट, ज़मीन को नहीं

    उसकी छाती को रौंदते हैं जैसे।

    एक सच

    जो परसों रात उसने देखा था।

    दूसरा सच

    वह देखना नहीं चाहती

    घर से गया हुआ उसका मर्द

    अब कभी वापस लौटकर नहीं आएगा

    सच यही है।

    घर से गए

    उसके आदमी की आँखें

    किसी रामपुरिया चाक़ू से कटी-फटी

    किसी कूड़े के ढेर के नज़दीक पड़ी होंगी

    या उसका झुलसा चेहरा

    और जला हुआ शरीर

    किसी नहर-नदी-नाले के पास पड़ा होगा

    सच यही है।

    पुलिस लाख कोशिश करे भी

    तो उस आदमी के हत्यारे को

    पकड़ने में सफल नहीं होगी

    क्योंकि हमारे भीतर

    कहीं कहीं

    किसी किसी रूप में

    वह हत्यारा बैठा है

    सच यही है।

    हम आदमी भी हैं

    और हत्यारे भी।

    पहले लाशें बिछाते हैं

    फिर राजनीति करते हैं

    क्योंकि लाशें बिछाना

    और लाशों की राजनीति करना

    दोनों ही हमारी नियति बन चुकी है।

    सच यही है।

    घर-घर जाकर

    कोई रोटी नहीं बाँटता

    ढेर-सारे त्रिशूल, चाक़ू, कट्टे, दस्ती बम

    बिन माँगे मिल जाते हैं।

    जिन्हें हाथों में

    नेज़ें-भालों की तरह सँभाले

    हमारे भीतर हलाकू-चंगेज़ी उभर कर

    सड़कों पर उतर आते हैं

    हमारी संस्कृति-परंपरा-रिश्ते

    पीछे छूट जाते हैं।

    आगे होती है

    एक सर्पाकार आग

    जो पहले आदमी को डँसती है

    फिर मकान-दुकान जलाती है

    और गाँव-क़स्बों के

    हरे-भरे खेत-खलिहानों को

    राख बनाती हुई

    शहरों को भयावह जंगल में

    बदल देती है।

    सच यही है।

    उसी राख को रौंदते हुए

    क़ौम की ख़िदमत करने

    अपने-अपने परचम लिए

    हम निकल पड़ते हैं

    उजड़ी बस्तियों को आबाद करने

    बिल्कुल क़ब्रों पर फूल उगाने जैसा

    सच यही है।

    घर-घर में सूनी आँखों से

    एक-एक औरत

    घर से बाहर गए

    अपने-अपने आदमी के

    लौटने का इंतज़ार करती है,

    सच यही है

    वह क़तरा-क़तरा होकर

    जीती है

    और क़तरा-क़तरा होकर

    मरती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 108)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : मोहनदास नैमिशराय
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए