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कुंठाएँ, पिपासा और बारिश

kunthayen, pipasa aur barish

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

कुंठाएँ, पिपासा और बारिश

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    गई

    उन्मुक्त काले कुंतलों की लट झुकाए

    दामिनी द्युति में लुभाती

    प्रीत की पहली किरण-सी

    मुग्ध—

    ये काली घटा!

    इस सलोनी ने

    पिया के देश की तज कर

    उड़ानें ली हवा में

    माननी बनकर!

    जग गई मेरी

    अलस-सी झीण कुंठाएँ

    दिशा में, पवन में

    गति में, उमस में

    जो मेरे मन की वितृष्णाएँ

    समेटे

    पल रहीं युग से!

    युगों से

    ये कहा मैंने

    भुलावा विश्व को देने

    ये बतलाने कि मैं भावुक हूँ

    कवि हूँ

    गीत गाता हूँ

    लुभाता हूँ चराचर को

    विगत की प्रीत लड़ियों में,

    मुझे जो उस सलोनी

    नाज़नीं ने

    रूप का प्याला पिलाकर

    सौंप डाली थीं।

    किंतु—

    विभ्रम है सदा ही

    विगत में खोना

    किसी क्षण में डुबा कर

    स्वयं को रोना!

    कलपना उन रसीली

    भावनाओं में,

    बिलखना उन रूपहली

    कामनाओं में

    भुलावा है ये,

    तृष्णा है

    युवक मन की

    जो जलते से

    सुलगते और लपते

    सुर्ख़ होंठों की

    पिपासा में तड़पता है!

    किंतु

    यह भी सच तभी लगता

    कसैले, साँवले

    कारे

    सजीले और कहरारे

    बदरवा

    जब गगन पर रास रचते हैं!

    तभी, उस ओर—

    तट के पास

    उन नीली लहरियों के अतल जल से

    सलोना, साँवला

    सुंदर

    लजीला, चाँद-सा चेहरा

    लजाकर ताकता मुझको!

    और मैं भी

    तब—

    जगत् को भूल

    चल देता उसी तट को

    जहाँ पर

    बरगदों की छाँह में

    नदिया किनारे

    घटा की उस चमकती दामिनी-सी

    रूप प्रतिमा पर

    बना पागल सघन घन

    मैं सभी रसधार बरसाता!

    स्रोत :
    • पुस्तक : पूर्वराग (पृष्ठ 61)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राजेश प्रकाशन
    • संस्करण : 1982

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