समझाइश
samjhaish
हरे जल पर धुँध छाई, रुको भाई
हमारे ज़ख़्मी अंगरखे पर सियाही, रुको भाई
रुको, रात भर बड़े-बड़े बल्बों की छाया धर
रुको, रात भर गहरी सूनी काली सड़कों पर
जल-जलाशय-राह-पैंड़ा-खेत-बारी हीन ऊसर में
यहीं पर सुबह खुलती हैं दुकानें
सब मिलेगा, रुको भाई
रुको भाई, इसी क़स्बे बीच रहते आद-मीयों की कथा
जाफ़री एहसान को कह कर चले जाना
ग़ज़ाला के नयन में खुभे सूजे की व्यथा
विकासी इस इलाक़े की भव्य वीभत्सी कथा
सुनकर फिर चले जाना
कि कैसे मरे थे वे
कि कैसे जले थे वे
कि कैसे शव चिटख कर दूर तक
दिल बीच गहरी खूँटियों से धँस गए थे
इलाक़े के ठीक नीचे नींव में गहरे गाड़े
कंकाल ढेरों, और ऊपर काल-कोठरियाँ
जहाँ व्यक्तित्व की गठरी समेटे आधुनिकता
को निहायत बेरहम हो पीटते हैं बाल-बच्चे उसी के
क़ब्ज़ा हर जगह पर है शरीफ़ों का, इमारत क़ैदख़ाना
भागकर जाए कहाँ कोई
रास्ते पर कोलतारी अजगरों की सियह काई
रुको भाई
गाँवों की शिराओं तक पसर कर मुस्कुराते क़ैदख़ाने
अब दीवाने कहाँ जाएँ, कहाँ जाएँ निपट पागल
स्त्रियों की ग़ायबीयत पर दचक से बैठ आई
किचकिचाकर ढूँढती है राजधानी
छुरा लेकर गर्दनों की नाप
इस उस जनम के सब किए और अनकिए पापों
की बना कर लिस्ट लाई
रुको भाई
रुको भाई, रुको भाई,
इस मनस गति से पहुँच ही जाओगे तुम
आज-कल में राजधानी
तुम्हारे स्वप्न में
जगमगाते डॉलरी उस कल्पतरु के हरे पत्तों से
यहीं पर पोंछ लेना
सावधानी से
व्यक्तित्व अपना
नहीं तो झाँक जाएगा तुम्हारा वही पिछला रूप
हमारी इन कथाओं को यहीं दफ़नाना
तालू औ ज़ुबाँ को एक टाँके से सिले रहना
सड़ी निष्ठा गंध ऊपर गोबरैले से खिले रहना
वध के उत्सवों के दिव्य भोजों पर पिले रहना
रुको भाई, अब नहीं कह पाऊँगा मैं
जाइए, जाओ, चले जाओ, दफ़ा हो
हटो आगे से, मरो चाहे जहाँ जाकर
अब आपका और मेरा रिश्ता ख़त्म।
- रचनाकार : मृत्युंजय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.