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किसी दिन

kisi din

पल्लवी विनोद

पल्लवी विनोद

किसी दिन

पल्लवी विनोद

और अधिकपल्लवी विनोद

    किसी दिन निकल आऊँगी अपने खोल के भीतर से

    इतनी खरी होकर कि

    तुम्हारी सभ्यता मुझे पहचानने से इंकार कर देगी

    स्टीयरिंग पर हाथ रखने के बाद भूल जाऊँगी

    घर में मौजूद लोगों की दवाएँ,

    मुझे विदा करते समय बच्चे की डबडबाई आँखें

    बस याद रखूँगी एक अच्छा चालक बनने की सारी शर्तें

    हो जाऊँगी बेख़बर हर ख़बर से

    लिख दूँगी वो सब

    जिसको पढ़ शर्मसार हो जाएँ पीढ़ियाँ

    रंग दूँगी अपने ही रक्त से घर की दीवारें

    रसोई में फोड़ दूँगी

    इत्र की सारी शीशियाँ

    आसमान की तरफ़ फेकूँगी पत्थर

    ये जाने बग़ैर कि नीचे आने पर किसके सिर लगेगा

    घर की दीवारों को तोड़कर हवा के रास्ते बनाऊँगी

    आँगन को घेर कर अपना कमरा बना दूँगी

    तमाम स्त्रीधन बेच घूमूँगी ये दुनिया अकेली

    मेरे बदन पर छपी होंगे दुनिया के तमाम शहरों की आँखें

    नाख़ूनों में फँसी होगी हर देश की मिट्टी

    मेरे चेहरे पर चिपके होंगे फ़रार औरतों के इश्तिहार

    हाथ में लटकी होंगी गुमनाम तालों की चाभियाँ

    मेरे वक्ष के बीचों-बीच मुस्कुराएगी कुमुदिनी

    कमर पर बँधी होगी रेत की एक लहर

    आज़ाद हो जाऊँगी तुम्हारी आँखों के क़ैद से

    हो जाऊँगी इतनी बेकार

    कि तुम्हारे किसी काम की नहीं रहूँगी

    नहीं देखूँगी तुम्हारे घोंसले की तरफ़

    दरवेश हो जाऊँगी

    भटकूँगी दर-बदर

    नहीं पूछूँगी अपने सवाल तुम्हारे किसी प्रत्याशी से

    मैं ही दिगंबर, मैं ही पैग़ंबर, मैं ही पीतांबर

    विलीन हो जाऊँगी इसी धरा में

    तुम्हें आख़िरी बार देखे बग़ैर

    स्रोत :
    • रचनाकार : पल्लवी विनोद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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