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काला मानव

kala manaw

वेदपाल ‘दीप’

वेदपाल ‘दीप’

काला मानव

वेदपाल ‘दीप’

और अधिकवेदपाल ‘दीप’

    मैं जब भी

    लेकर काग़ज़ और क़लम

    एकत्र करता हूँ भाव मन के

    मेरी आँखों में बन जाती है

    मूरत काले मानव की

    जिसका ख़ून है लाल

    रंग है इक साँझी मानवता का

    और जिसके

    घने कुंडल वाले खुरदरे बाल

    उलझे हुए हैं

    घने जंगलों की भाँति

    और वृक्षों समान मज़बूत हैं

    भुजपेशियाँ जिसकी

    अट्टहास श्वेत दाँतों का

    गरज और चमक बिजली की

    जिसे देख भयभीत होती है

    सुंदरता श्वेत सभ्यता की

    मैं जब छंद लिखने को

    अपनी क़लम उठाता हूँ

    यह क़लम मुझे

    बंदूक़ दिखाई देती है

    जिसे कांगो का हब्शी

    घने जंगल में

    कहीं घुप्प अँधेरे में

    किसी पेड़ की ओट में

    बेल्ज़ियम की पलटन पर

    चलाने के लिए

    टिकाता है कंधों पर

    जिस समय मैं स्याही से

    काग़ज़ पर

    लिख देता हूँ एक अक्षर

    चमकते हीरे की कणिका-जैसा

    जिसकी धूल छानते हैं

    गहरी मिट्टी में

    गहरे काले हाथ

    बंजर मैदानों औ’

    चट्टानों के नीचे

    जिनसे जुड़े हुए

    सजते हैं ताज

    विदेशों में

    मैं जब भी गीत गाने के लिए

    अपने होंठ हिलाता हूँ

    तो लगता है

    हिल गए हैं

    कितने ही क़बीलों के क़बीले

    मानव के अनगिनत परिवार

    शेर बब्बर

    ज़ंजीरें तोड़कर

    चिड़ियाघर में से

    कँटीली तारों के घेरे में

    बनाया था जिसे

    विदेशी शासकों ने।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधिनुक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 65)
    • संपादक : ओम गोस्वामी
    • रचनाकार : वेदपाल 'दीप'
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

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