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पहाड़गंज

pahaDganj

नवीन रांगियाल

नवीन रांगियाल

पहाड़गंज

नवीन रांगियाल

अपनी दिल्ली छोड़कर

मेरी सुरंगों में चले आते हो

पहाड़गंज तुम।

मैं इन रातों में

आँखों से सुनता हूँ तुम्हें—

मरे हुए आदमी की तरह।

ट्रेनें चीख़ती हैं तुम्हारी हँसी में

मैं अपनी नींद में जागता हूँ।

मेरे सपनों में तुम उतने ही बड़े हो

जितने बड़े ये पहाड़ हमारे दुखों के।

मैं देखता हूँ

तुम्हारी कमर की लापरवाहियाँ

और उस शहर के रास्ते

जिसके पानी पर चलते-चलते

थक गए थे हम।

मैं एक साँस खींच लेता हूँ तुम्हारी

जीने के लिए।

कमरें सूँघता हूँ होटल के

उस गली में

धुआँ पीता हूँ तुम्हारे सीने से।

मैं भूलना चाहता हूँ

तुम्हारी दिल्ली और अपना पहाड़गंज

जिसके नवंबर में

तुम्हारे होंठों की चिपचिपी आग से

सिगरेट जला ली थी मैंने।

तुम धूप ठंडी करते थे मेरी आँखों में

मैं गुलमोहर के फूल उगाता था—

तुम्हारे हाथों में।

स्रोत :
  • रचनाकार : नवीन रांगियाल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए द्वारा चयनित

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