चींटियाँ
chintiyan
चींटियाँ अपने घर का रास्ता भूल गई थीं।
हमारी नींद और हमारी देह की बीच वे क़तार बनाती चलतीं। उनकी स्मृति में
बिखरा रहता उनका अदृश्य आटा, जो किसी दूसरे देश-काल ने बिखेरा था। उसे
ढूँढ़ती वे चलती जातीं पृथ्वी के एक सिरे से दूसरे की ओर। वे अपने दाँत गड़ातीं
हर जीवित व मृत वस्तु में। उनके चलने से पृथ्वी के दुख हल्के होने लगते
कि दिशाएँ घूमने लगतीं, भ्रमित हो। ध्रुव बदलने लगते अपनी जगह। चींटियों
का दुख लेकिन कोई न जानता था।
बहुत पहले शायद कभी वे स्त्रियाँ रही हों।
- पुस्तक : अँधेरे में बुद्ध (पृष्ठ 98)
- रचनाकार : गगन गिल
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1996
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