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छूटना

Chhutana

आलोक कुमार मिश्रा

और अधिकआलोक कुमार मिश्रा

    अकड़ारी एक बरसाती नदी थी

    मेरे गाँव में

    उसके पानी में मछलियाँ पकड़ी हमने

    और सूखे दिनों में भैंस चराई वहाँ

    उससे रिश्ता रहा माँ जैसा

    वह अब सूख चुकी है हमेशा के लिए

    हालाँकि नाम बचा है

    मेरे बचपन में रहीं कितनी ही

    बूढ़ी दादियाँ, बूढ़े बाबा लोग

    जिनकी डाँट, आशीष, सीख सब

    छाता बन तने रहे हम पर

    नहीं रहे अब वे

    बस चर्चा में नाम जाता है जब-तब

    कितने संगी-साथी

    जिनके बग़ैर बीतते थे दिन

    होती थी रात

    ज़िंदगी की हर नेमत से ज़्यादा

    सुहाता था उनका साथ

    वे हैं भी तो अब बची नहीं यारी

    सब खो गए सँभालते हुए अपनी परिवारी

    मिलने पर मिलते हैं

    मिलने के जैसे

    कितनी ही बहनें-बुआएँ

    लौट आती थीं सावन में मायके

    हमारे गाँव

    बाग़-बग़ीचे और हरे हो जाते थे

    घर-दुवार भर जाते थे स्नेह की गंध से

    त्योहार और हँसने लगते थे

    माँओं-भौजाइयों के चेहरे पर उतर आता था वसंत

    अब भी हैं ये बहनें-बुआएँ अपनी-अपनी ससुराल

    पर अब उन्हें आने का समय है

    किसी को बुलाने का

    आती भी हैं तो हाथ में लिए रहती हैं

    टिकट वापसी की

    छूटते गए ज़िंदगी में

    गाय-गोरू, चिरई-चिरंगन, थान-पवान, दोस्त-मितान

    शहर में जमते गए हम और जोड़ते गए

    घर-मकान, सुविधाएँ-सामान, पहुँच-पहचान

    पर जो गँवाया हमने

    उसका हिसाब चुकाते रहे

    सपनों में, क़िस्सों में, यादों में, अकेलेपन में

    इस छूटते चले जाने के दौर में भी

    जाने क्यों नहीं छूटती स्मृतियाँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आलोक कुमार मिश्रा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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