सुरेंद्र चौधरी को याद करते हुए
हथिया नक्षत्र में इस बार ख़ूब हुई थी बारिश
आँगन में अमरूद के पेड़ पर
इस बार ख़ूब आए थे नए-नए पत्ते
कितने-कितने गीतों को लेकर
दूर-दूर-से उस पर उतरे थे सुग्गों के झुंड
जब तुम हँसते थे
हँसता था यह अमरूद का पेड़
जब तुम होते थे उदास
तब न जाने कितना उदास हो जाता था यह पेड़
टपकते थे उसकी आँखों से भी आँसू।
इस बार ख़ूब फैली है उसकी शाखें
वह फैल कर पहुँच गई है तुम्हारे कमरे तक
जहाँ बैठ, करती हैं वे रखवाली तुम्हारे सपनों की
तुम होते तो कहते
“आओ, कितनी देर कर दी आने में
मुझे भी समेट लो अपने आग़ोश में
मैं भी फैलना चाहता हूँ तुम्हारी तरह।''
तुम्हारे कमरे में चिड़ियों ने नए घोंसले बनाए हैं।
कुछ तिनके बिखरे रहते हैं तुम्हारे बिस्तर पर
जहाँ बरसों तक बिखरी रहीं तुम्हारे साथ
तुम्हारी किताबें
मित्रों के ख़त
चाय के जूठे प्याले।
वह स्त्री जिसके चेहरे पर कितनी आड़ी-तिरछी
रेखाओं की कोंपले उभरने लगी हैं।
तुम्हारी फ़ाइलों से ढूँढ़-ढूँढ़कर
निकाल रही है उन पन्नों को
जिन्हें भेजा था कभी तुम्हारे दोस्तों ने
एक पत्र को पढ़कर रोती जाती है वह स्त्री
जिसे भेजा है एक प्यारी-सी बच्ची ने
तुम्हें ज़रूर याद होगी उस बच्ची की
जो कभी अपनी नानी के साथ
पाकिस्तान से आई थी हिंदुस्तान।
उसने आते ही तुम्हारे दोस्त से की थी ज़िद :
“नाना, मुझे हिंदू दिखा दो
सुना है हिंदू होते हैं बड़े बदमाश
नेज़ों पर उछालते हैं बच्चों का कटा सिर”
तब नाना ने तुम्हारी तरफ़ दिखलाकर
बच्ची को बहलाने के लिए कहा था :
“यही हैं बदमाश हिंदू
ऐसे ही होते हैं हिंदू।”
(जबकि तुम दोनों दोस्त थे धर्म की बाज़ीगरी से दूर
धर्म के सौदागरों की आँखों की किरकिरी थे तुम सब)
तुमने उस बच्ची को उठाकर गोद में तो बिठा लिया था
उससे ऐसे लिपटे रहे
जैसे उसी के बहाने
कुछ देर तक लिपटे रहे हो
अपने उस देश से
जो अभी भी तुम्हारे भीतर बसता था।
तुम जानते थे
स्मृतियों और इतिहास को इस तरह
किसी के चाहने से बाँटा नहीं जा सकता
बच्ची इतनी घुल-मिल गई थी तुमसे
कि लौटते वक़्त उसने ज़िद की थी
“वह अपने इस हिंदू नाना को
पाकिस्तान ले जाएगी।”
भले ही नहीं गए तुम उसके साथ
लेकिन अपने इस नाना के
प्यार की एक बड़ी धरोहर
लेकर लौटी थी वह अपने साथ
उसे मालूम हो गया है तुम्हारे न होने का,
वह रोती रही कई दिनों तक
उसकी सिसकियाँ सुनाई पड़ती हैं तुम्हारे कमरे से
यह कैसे हो जाता है कि जब धर्म का बाज़ार
सबसे फ़ायदेमंद हो रहा हो,
जब धर्म नफ़रत और घृणा फैलाने का
ज़रिया बन गया हो
वैसे में एक छोटे-से शहर के
अपने हिंदू नाना को याद करती है
पाकिस्तान में वह प्यारी-सी बच्ची
और रोते-रोते बार-बार दुहराती है
“वह भी अपना जीवन जिएगी
अपने उसी नाना की तरह।”
उस बच्ची के आँसुओं के साथ वह स्त्री
अब भी हर चीज़ को
वैसे ही सहेज कर बैठी है उस कमरे में
जैसे अभी-अभी कहीं से घबराए लौटोगे तुम
और माँग दोगे तुरंत अपनी ज़रूरत की कोई चीज़
बरसात के अँधेरे में
वह उस कमरे में
एक दिए की तरह जल रही है।
वह पत्नी थी तुम्हारी
दोस्त थी, माँ थी, साथी थी।
वह ऐस रही जीवन भर तुम्हारे साथ
जैसे उसका जन्म ही हुआ था
तुम्हें सहेजने के लिए
तुम अपने काम में इतने रहे मशग़ूल
कि कभी-कभी होती तुम्हें ग्लानि
और बस इतना भर कह पाते
“मैंने इस जीवन में क्या दिया तुम्हें?
कुछ भी तो नहीं...
सुख के नाम पर पाँच-छह बच्चे, बस!”
फिर उसकी तरफ़ देख मुस्कुराते हुए कहते,
“चलो ऐसे ही चलती है ज़िंदगी”
और निकल जाते थे
फिर से सड़कों पर।
वह स्त्री कहती
“ज़िंदगी ऐसे ही संघर्षों के बीच गुज़रती है
तुम जब साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ तनकर ख़ड़े हो जाते हो
तुम जब वियतनामी योद्धाओं पर गर्व करते हो,
तुम जब ‘1857’ के वीरों के गीत गुनगुनाते हो,
जब तुम क्यूबावासियों को सैल्यूट करते हो
तो मैं भी जुड़ जाती हूँ एक बड़ी दुनिया से
एक छोटी-सी चिड़िया आकाश का हिस्सा हो जाती है
तुम्हारी आँखें कितने दर्द समाए रखती हैं अपने भीतर।
तुम्हारे चेहरे पर उतरती-डूबती कितनी रेखाएँ
न जाने कितने संघर्षों की गाथा बन जाती हैं
तब तुम्हारा चेहरा घोंसले की तरह दिखता है
जिसको दुनिया के तमाम परिंदों के
लौटने का इंतज़ार है
मैं चाहती हूँ
उन्हीं में से एक छोटी-सी चिड़िया बन
उस घोंसले में थोड़ी देर के लिए
उनके साथ जी लूँ।
तुमने मुझे जीने का अर्थ दिया।
क्या तुम चाहते हो
मैं छोटे-से सुख के लिए
बड़ी-सी दुनिया से बाहर रह जाऊँ?”
एक संकल्प के साथ जिए जा रही वह स्त्री।
ऐसी ही संकल्पों से एक दिन तुमने भी की थी
संघर्ष की शुरुआत
हर छोटी-छोटी लड़ाइयों में तुमने देखे थे
बड़े संघर्षों के बीज
दुनिया के हर छोटे-बड़े संघर्षों से उपजी थी
तुम्हारे अंदर ज़िंदगी के प्रति आस्था।
इसलिए तुम कभी नहीं छोड़ पाए
अपना छोटा-सा कमरा
सँकरी-सी गली
छोटा-सा शहर
छोटे शहर के बड़े-बड़े दु:खों को लेकर जीते लोग।
तुम इसीलिए जुड़े रहे उनके साथ संघर्षों में
जब कुछ लोग कहते
“क्यों इतनी योग्यता और पहचान पाकर भी
जी रहे हो कीचड़ की तरह?
क्यों नहीं तलाशते बड़ा-सा आकाश अपने लिए?”
तब तुम हँसकर इतना भर कहते :
“एक दिन इसी छोटी-सी जगह से उठेगी हवा
और घेर लेगी पूरे आकाश को
उस दिन मैं भी रहूँगा अपने लोगों के साथ।”
तुमने उनका तिरस्कार सहा
उनकी गलियाँ सही
तुम्हारे विरोधियों को हमेशा यह आश्चर्यचकित करता
कि ठगने क़द के इस आदमी में
कहाँ से आती थी इतनी ताक़त?
कहाँ से भर जाता था इतना जोश?
कि पहाड़ की ताक़त भी छोटी पड़ जाती
वे कभी नहीं समझ पाएँगे तुम्हारी ताक़त का राज़
तुम्हारे कितने साथी, छोटे-छोटे लाभ के लिए
बेचते रहे अपने को
उन्होंने गद्दारी के सिद्धांतों के साथ
संघर्षों के साथ
आजकल कला-दीर्घाओं में बहुत ऊँचे दामों पर
बिक रही हैं उनकी तस्वीरें
तुम्हारी एक प्रिय कवयित्री ठीक ही कहती है :
“संस्कृति की सोनागाछी के दलाल हैं वे लोग।”
मेरे प्रिय साथी!
भले ही इस ठंड में नहीं जल रहे हैं बड़े-बड़े अलाव
भले ही हथेलियों को रगड़-रगड़कर
गर्मी का किया जा रहा हो एहसास
भले ही तुम्हारे मित्रों को नहीं आती
कोई चिट्ठी तुम्हारे घर के पते से
भले ही उन्होंने सोच लिया हो कि
एक छोटे-से कमरे में,
सड़ी गली में, सड़े हुए शहर में
मरा एक ज़िद्दी पागल
लेकिन उसकी नौटंकी के बावजूद
प्यार और संघर्ष की बनाई थी तुमने जो दुनिया
उसके सपनों की छाया
उम्मीदों की छाया
संघर्षों की छाया
अब भी टिकी है उस स्त्री के चेहरे पर
जो ज़िंदगी भर रही तुम्हारे साथ
अब उसके चेहरे पर उभरने लगी है
कितनी आड़ी-तिरछी रेखाएँ
उनसे जुड़ने लगी हैं
कितने-कितने संघर्षों की कथा
एक चेहरा एक घोंसले में बदल रहा है
जिसे इंतज़ार है कितने-कितने परिंदों के लौटने का
जिनके साथ बैठकर करनी है कितनी-कितनी बातें
तमाम दुनिया के दु:ख, दर्द की बातें
नए कल की बातें।
बाहर तेज़ हो रही है बारिश
तुम मुस्करा रहे हो अपनी तस्वीर से
और अमरूद की महक फैल रही है चारों ओर।
- पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 103)
- रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
- प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
- संस्करण : 2018
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