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छत्तीसवाँ बसंत

chhattiswan basant

वीरू सोनकर

वीरू सोनकर

छत्तीसवाँ बसंत

वीरू सोनकर

और अधिकवीरू सोनकर

     

    ग्लानि यात्रा का एक पड़ाव

    ऐसे समय में
    जब सूख चुके वृक्ष गिरने को तैयार नहीं थे
    और पर्वत इमारतों से छोटे होकर भी अपनी जगह नहीं छोड़ रहे थे 

    भाषा, संक्रमण के दौर में भी अपनी बात कहे जा रही थी 
    लग रहा था मानो पूरी सभ्यता ही प्रतीक्षित हो
    अपने पुनर्वास के लिए 

    जब तीसेक पार कवि गोलियाँ खाकर भी 
    विचारों को जीवित किए थे
    मैं छत्तीसवाँ वसंत पार कर लेने की ग्लानि में डूब चुका था

    एक क्रांति प्रतीक्षित थी, पर मैं मोर्चे पर नहीं
    संभोग में था,
    भय में था

    राष्ट्रवादिता, 
    जिस देश में अपने अर्थ खोज रही थी
    और नृशंसता तलाश रही थी ख़ुद के लिए सभ्य अर्थों वाले शब्द
    हर कोई वहाँ 
    एक आवरण-अनिवार्यता में लिप्त था 

    ऐसे देश में, जहाँ जनता चाहती थी
    उनकी लड़ाई कोई और लड़े
    और कविता चाहती थी प्रोडक्टवाद से आज़ादी 

    छुपे चेहरे वाले कवि,
    क्रांति चीख़कर अपने असली चेहरों संग निकल भाग रहे थे
    और लोर्का की आत्मा
    इन नकली लड़ाइयों से चिढ़कर
    स्वर्ग में पुनर्जन्म की माँग पर उपवास पर थी

    कि मार्क्सवाद कब आएगा कवि!
    कि यह दुनिया कब बदलेंगी
    तुम्हारे दावों से परे सबसे पीछे खड़ा आदमी अभी तक नंगा है

    मैं छत्तीसवें वसंत की एक शव-यात्रा ढो रहा था
    और एक लज्जित युग मेरी मृत्यु की कामना में लीन था

    कामनाएँ हर ओर से आ रही थीं
    और हर क्षण बदलता एक आकाश बुन रही थीं

    फिर भी एक दुनिया बदलने को तैयार नहीं थी 

    यह मेरा युग था
    मैं कविताएँ लिखता और सो जाता था।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरू सोनकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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