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छठि

chhathi

ज्योत्स्ना चन्द्रम्

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और अधिकज्योत्स्ना चन्द्रम्

    एकटा समय छल

    जखन आसिन अबिते

    जोड़ाए लगैत छल

    आँगुरपर दिन

    भरि पितरपक्ष होइत छलनि

    पितरलोकनिक आवाहन/तर्पण

    फेर, विजयादशमीक उल्लास

    पूजन-अर्चन, मेलाक उत्साह

    कोजागराक फोका मखान

    मुंगबा-खाजा-नारिकेर पान

    दीयाबातीक पूर्वे सँ

    बनबैत छलहुँ गाहीक गाही दीप

    नीपल-छछारल घर-आँगनक संगहि

    उमंग भरल आकृतिपर

    झलकि अबैत छल पाबनिक रंग

    गबैत छलहुँ सखी-बहिनपाक संग—

    'सुख-सुखराती

    दीयाबाती

    तकरे छबे छठि....'

    छठिक अर्थ मे जेना

    समटि अबैत छल सम्पूर्ण समर्पण

    सूपपर जरैत दीप सन

    निष्कम्प निष्ठा, भक्ति

    ठकुआक मिठास सँ

    बिलहाए लगैत छल जेना आशीष

    एकटा समय अछि

    जखन आसिन अबिते

    साकांक्ष भऽ उठैत अछि मोन—

    पाबनि...पाबनि...फेर पाबनि...

    मुदा सुखाएल नहि आस्तिकताक नदी

    भक्ति भाव मे

    नहि आएल मिसियो भरि अंतर

    मुदा केचुआ छोड़ल

    अभावक साँप!

    हेरा गेल जेना पाबनिक अर्थ

    मलिन भेल प्रकाश...

    गुम भेलि ठकुआएलि हम

    ताकि रहलि छी अपन चारूभर

    शांत-स्थिर नदीक दुनू कछेर

    कछेर सँ बान्ह धरि

    करमान लागल लोक

    कोदारिक चाँछल घाट

    घाटक काते-कात गाड़ल केराक थम्ह

    पतियानी लागल सूप

    कूरा

    सरबा

    ढाकन...

    सभ मे साँठल

    ठकुआ

    भुसबा

    केरा

    नारिकेर...

    सभ अर्घ्य मे

    अँकुरी

    आरतक पात

    बद्धी जरैत दीप...

    लगैत अछि जेना

    पाबनिक स्वरूप तऽ

    आर सुन्नरे भेल छै

    लाल-पीयर वस्त्रक चमक सँ

    होइत अछि—

    ठीके, ठीके कहै छै लोक

    जे देश अपन

    आर्थिक उन्नति कऽ रहल अछि...

    तखने ठुनकैत अबैत अछि उत्सव

    तोड़ि दैत अछि ध्यान ओकर नूपुरक ध्वनि—

    'हमहूँ लेब बैलून

    बाजा, फटक्का..

    बम, राकेट, साँप...'

    हम तकैत छी अपन आँचरक खूट

    कहाँ अछि किछु!

    उदास उदास सन गीरह

    मुँह दुसैत हमर वर्तमानपर...

    मोन पड़ि जाइत अछि—

    बन्न वेतन

    बनियाक उधारी

    दूध मकानमालिकक तगेदा

    अप्पू-गप्पूक फीस

    जीट-जाट/फीट-फाट...

    ...फेर, तमाम आवश्यकतामे कतरब्योंत...

    ...आ हम

    देशक आर्थिक उन्नतिक संग

    जोखऽ लगैत छी अपना कें

    अपन मनोरथ कें...

    सेहन्ता औनाए लगैत अछि—

    नहि,

    छठिक एहि घाटपर

    कोनोटा मीन-मेष नहि

    एतऽ मात्र

    नदी, घाट, अर्घ्य

    कल जोड़ने ठाढ़ व्रती

    हवाक संग सिरसिराइत/फहराइत

    वन्दनाक लहरि

    भावनाक हिलकोर...

    हम हेराए चाहैत छी

    हम इति भऽ जाए चाहैत छी

    डूब जाए चाहैत छी एहि आलोक मे

    उठि रहल छनि दीनानाथक गीत—

    'उगऽ हो दीनानाथ

    भेल अरघक बेर...'

    मुदा, बहरा नहि पबैत अछि

    टाँस/ओ टोप-टहंकार...

    वाह रे हमर परम्परा!

    जुग-जुग जीबू हमर परिवेश

    धर्मशास्त्र सँ गछारल

    अर्थशास्त्र सँ

    पछड़ रहल अछि समाजशास्त्र

    तैयो हम गबैत छी गीत

    फटैत नहि अछि लौकिकताक कोंढ़

    लगैत अछि जेना

    कोकनल मेह सँ बान्हल

    मेहिया बड़द जकाँ घूमि रहलि छी

    नहि लगैत अछि घुर्मा

    नहि लगैत अछि चोन्ह

    नहि उठैत अछि तर्जनी

    हम केहन मनुक्ख छी

    जाहि समयमे जीबैत छी

    ताहि समय कें नहि पढ़त छी

    हम केहन मनुक्ख छी!

    स्रोत :
    • पुस्तक : समग्र ज्योत्स्ना (पृष्ठ 59)
    • संपादक : विभूति आनन्द
    • रचनाकार : ज्योत्स्ना चन्द्रम्
    • प्रकाशन : नवारम्भ
    • संस्करण : 2017

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