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चप्पल

chappal

शचींद्र आर्य

और अधिकशचींद्र आर्य

    शहर के इस कोने से जहाँ खड़े होकर

    इन जूतियों और चप्पलों वाले इतने पैरों को आते जाते देख रहा हूँ,

    उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ के कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?

    किसी छूटती बस के पीछे,

    बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,

    किसी आदमी के पीछे।

    मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,

    जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,

    किसी अधेड़ उम्र की औरत

    और

    किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला को भागते हुए देखा हो।

    ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, या उन्हें भागना नहीं आता।

    बात दरअसल इतनी सी है,

    जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,

    उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे।

    पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक़।

    सवाल इतना सा ही है,

    उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?

    स्रोत :
    • रचनाकार : शचींद्र आर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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