शहर का रात्रि का मार्ग, विचारों से भरा-पूरा,
तेज़ बिजली के दीयों के बीच से मै गुज़र रहा।
अचानक देखता हूँ—मेरी छाया क्या ही फिसल रही!
तेज़ी से कार के आते, दौड़ती तीक्ष्ण दृष्टि से।
मेरे चरणों से चिपकी ये, मेरी छाया क्या ही फिसल जाती।
(अदृश्य हाथ से मानो कोई हवा में फेंकता है।)
सामने से उधर फिर किसी दूसरे वाहन के आते ही
वह शीघ्र ऐसी मुड़ती है कि किसी मकान पर चढ़ जाती है।
मार्ग के दीपक के प्रकाश में तो वह गिरे हुए पानी की भाँति ही
दीखती है।
घड़ी-भर ठिगनी बनती है, अचानक किसी लंबे छड़-सी बढ़ जाती है।
एक साथ रूप धरती है तीन-चार से भी अधिक,
मूलतः वह आकृति-मात्र है, इंद्रियों का पता नहीं।
पुल पर मैं चलता हूँ तो वह नदी के पट में बहती है।
तट के वृक्ष के पत्तों से चिपककर ऊपर चढ़ जाती है।
अचानक व्योम से वर्षा हुई, पानी पगडंडी तक चढ़ गया,
जल के प्रत्येक बिंदु के साथ वह होती हर्ष-विभोर!
रुकूँ मैं कहीं तो जाने के लिए कैसी तड़पती है!!
बहती हुई धारा के साथ वह हो लेती है। अरे, मुझे भी छोड़ जाती है।
आँख नहीं मिलाई जिससे एक क्षण के लिए,
उस अज्ञात नारी की महीन साड़ी पर जाकर खेलती है।
कभी सारे मार्ग को रोक ले ऐसी चौड़ी हो जाती है।
पर क्षण का वह सारा रूप क्षण में ही विलुप्त हो जाता है।
विरूप रूप का प्रश्न? दूसरों के साथ घुल-मिल जाना,
सभी संयोगो के अधीन होकर टेढ़े-मेढ़े मुड़ जाना।
गाड़ी के मंद चक्र में वह घुल जाती है, और सभी चक्करों में भी!
चलते हुए रहँट का दृश्य दृष्टि सम्मुख खड़ा होता है।
लक्ष्य पर पहुँचने में मुझसे पहले पहुँचती है।
अँधेरे किसी कोने में वह देखते-ही-देखते लुप्त हो जाती है।
इसके भिन्न-भिन्न रूप देखते-देखते मैं अब क्लांत हो गया हूँ।
आँखें मींचकर मैं रुकता हूँ तो वे सभी दृश्य एकत्रित होते हैं।
फिर से आँखे खोलता हूँ तो नया कुछ नहीं दीखता।
अनंत विविध रूपो में वही मैं, वही मैं;
छाया को मैं मात्र छाया-रूप में ग्रहण नहीं करता।
ये तो मेरे यथार्थ चित्र छाया-रूप में चलते हैं।
चलते-चलते मैंने अपना ही चलचित्र यह देखा!!
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 255)
- रचनाकार : प्रियकांत मणियार
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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