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काला और गोरा

kala aur gora

व्लादिमीर मायाकोव्स्की

और अधिकव्लादिमीर मायाकोव्स्की

    अगर आप देखें

    हवाना को

    अपने सैरबीनों में से,

    वह द्वीप—

    पूरा बहिश्त है,

    किसी चीज़ की कमी नहीं :

    ताड़ के घने कुंजों में

    एक पाँव से खड़े

    सारस

    कोलैरिया

    चतुर्दिक फूले हुए

    वेदादो

    लहराते हुए।

    मगर

    हवाना में

    सब कुछ विभाजित है

    गोरों के पास

    डॉलर हैं—

    और वे समूचे मालिक हैं

    पर कालों के पास

    पाई नहीं

    अतः विली के

    हाथ में झाड़ू है

    और वह खड़ा चौराहा

    बुहारता है

    ज़िंदगी भर विली

    बुहारता रहा है

    और बिना शक

    उसके द्वारा बुहारा गया

    कूड़ा, महासागरों जैसे

    कूड़ेख़ानों को भर दे

    इसीलिए झर गए हैं

    विली के बाल

    और इसीलिए धँस गया है

    विली का पेट।

    विली

    के चंद मनोरंजन

    एक उदास, विनम्र दृश्य प्रस्तुत करते हैं

    छः घंटे की

    नींद

    उसका एक मात्र विलास है

    और, कभी जब क़िस्मत तेज़ हो

    तो कोई भागता चोर

    या शराब का इंस्पेक्टर

    जाते-जाते

    बेचारे अश्वेत की

    ओर एक अधेला फेंक देता है

    क्या कुछ फ़ायदा हो सकता है

    अगर लोग

    सर के बल चलने लगें?

    इस तमाम धूल का

    कुछ इलाज तो

    आख़िर होना चाहिए!

    फिर आदमी के सर में हज़ारों बाल हैं

    जो धूल फैलाने में

    सहायक होते हैं;

    पर पाँव तो

    आदमी के पास केवल दो हैं।

    ख़ुशनुमा

    प्राडो

    सुगंध और गीत-भरा

    गुज़र जाता है;

    कभी उदात्त, कभी अनुदात्त

    उद्भ्रांत जाज़ के

    स्वर आते हैं!

    आदमी,

    जो दिमाग़ से ख़ाली है

    समझ सकता

    कि हवाना

    ही वह जगह है जहाँ आदम का बहिश्त था।

    पर कुछ उलझनें

    विली के दिमाग़ में

    बसी हैं

    ज़्यादा तो नहीं

    क्योंकि कम बोया गया है

    उसके दिमाग़ में

    कम उगा है;

    एक चीज़ और केवल एक चीज़

    उसके दिमाग़ में टिकी है

    किंतु वह

    गहरी नक़्श है,

    स्मारक के पत्थर-सी :

    गोरे खाते हैं

    अनन्नास

    पके और रस भरे

    काले खाते हैं

    अनन्नास

    कीचड़ में सड़े हुए

    गोरों के सामने

    चुनने की स्वतंत्रता है

    उसे हल्के काम मिल सकते हैं

    काले

    मेहनत का काम करते हैं

    क्योंकि वही उन्हें मिलता है!

    सिर्फ़ चंद

    समस्याएँ हैं

    जो बेचारे विली को परेशान करती रहती हैं

    पर उनमें से एक

    बहुत गाँठ-गठीली है

    सबसे गाँठ-गठीली है,

    और जब

    वह उसको कुरेदती है,

    तो बिल्कुल उसे उद्भ्रांत बना देती है—

    इतना उद्भ्रांत, कि

    उसकी झाड़ू

    उसके काले हाथों से गिर जाती है।

    और हुआ यह कि

    उद्योगपतियों में सबसे बड़ा उद्योगपति—

    शक्कर-सम्राट—

    —जिन दिनों विली के मन में

    संशय घुमड़ रहा था—

    मिलने आया,

    सफ़ेद झकाझक

    पोशाक में,

    सिग़ार-सम्राट् के

    दफ़्तर में,

    जिसके आस-पास विली मँडरा रहा था।

    अश्वेत

    जाकर खड़ा हो गया

    चर्बीदार छैल-छबीले के सामने—

    ज़रा सुनिए सरकार,

    हज़ूर

    आप बड़वार मनई हैं, बड़े लोग हैं—

    लेकिन शक्कर

    जो इतनी सफ़ेद है, इतनी गोरी है,

    उगाई जाती है

    पेरी जाती है, बनाई जाती है

    काले भुच्च अश्वेत के द्वारा?

    काले

    चुरट

    गोरे मुँह में ठीक नहीं लगते—

    वे कहीं अच्छे लगते हैं

    चेहरे में

    जो काला हो;

    और अगर

    शक्कर

    आप के लिए इतनी सुखदायी है

    तो ख़ुद

    आप क्यों नहीं

    पायचे समेट कर

    खेत में जाते?”

    अब ऐसा सवाल

    सुनकर

    आप जाने नहीं तो नहीं ही दे सकते;

    शक्कर सम्राट का

    गोरा चेहरा

    बिल्कुल ज़र्द पड़ गया

    घुमनी-नचैया

    की तरह

    और फिर

    उसने घूमकर एक भरपूर हाथ दिया

    और फिर

    उस काले को छुए हुए

    दस्ताने को भी फेंककर

    काले विली को फ़र्श पर

    तड़पता छोड़कर

    चला गया

    नीचे गिरे विली के चारों ओर

    ख़ूबसूरत पेड़ दीखते हैं

    हरे-भरे

    उसके सिर के ऊपर

    घने कदली-कुंज

    उसने अपने हाथ से

    नाक से गिरता रक्त पोंछा

    (बेचारा जितना कमाता

    उसमें कहाँ है गुंजाएश

    अट्टी-पट्टी की)

    विली ने अपना

    जबड़ा छूकर देखा

    अपनी टूटी नाक साफ़ की

    और उठा ली फिर से

    अपनी बुहारी, उसे

    कहाँ से मालूम होता

    कि

    वे अश्वेत

    जो ऐसा सवाल उठाना चाहते हैं

    वे भेज़ें इसे

    मास्को में

    कोमिंटर्न को?

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 415)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : व्लादिमीर मायाकोव्स्की
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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