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आधी रात का बुद्ध

aadhi raat ka buddh

तुषार धवल

तुषार धवल

आधी रात का बुद्ध

तुषार धवल

यह मोरपंखी सजावट की गुलाबी मवाद

जिसे तुम दुनिया कहते हो

नहीं खींच सकी उसे

उसने डुबकियाँ लगाई जिस्म-ओ-शराब में

मरक़ज़-ओ-माहताब में

मशरिक़-ओ-मग़रिब में

लेकिन रात ढले उग आया वह

अपने पश्चिम से

वह अपने रीते में छलक रहा है

बह रहा है अपने उजाड़ में

वह अपने निर्जन का अकेला बाशिंदा

अपने एंकात में षड्ज का गंभीर गीत है

रात के चौथे आयाम की अकेली भीड़ है वह

अपने घावों में ज्ञान के बीज रोपता

रँगता है बेसुध

बड़े कैनवास के कालेपन को

काले पर रंग ख़ूब निखरता है

वह जान चुका है

रिश्तों की खोखल में झाँक कर

वह जोर से हुआऽऽहू चिल्लाकर मुस्कुरा देता है

हट जाता है वहाँ से

असार के गहन सार में उतर कर

उभरता है वहाँ से

निश्चेष्ट निष्कपट निष्काम

दुख प्रहसन की तरह मिलते हैं उससे

इस पहर

पीड़ाएँ बहनों की तरह मुँहज़ोर

उसे मतलब में छुपा 'बे-मतलब' मिल जाता है अचानक

लिखता है वह अपना सत्य

अपनी कविता उपेक्षित

दिन हुए वह कहता है सच्चे मन की अपनी बात

दिन चढ़े उसे ग़लत समझ लिया जाता है

दिन भर दोस्तों और दुनिया के हाथों ठगा जाकर

चोट खाया

आधी रात गए बुद्ध हुआ वह

मुआफ़ कर देता है सबको

जगत की लघुता पर मुस्कुराता है वह

और उसे भूल जाता है।

स्रोत :
  • रचनाकार : तुषार धवल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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