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कापालिक प्रिया

kapalik priya

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

कापालिक प्रिया

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    एक डिब्बे में बंद कर दी गई है मेरी श्वास

    मुझे ठूँस दिया गया है एक अँधेरी सुरंग में

    और सुरंग द्वार का मुख बंद कर दिया गया है।

    दरवाज़े पर वज्रासन लगाकर लेटी है मेरी प्रेमिका

    उसका एक हाथ अँधेरे को और एक मुझे निगल रहा है

    मैं रिस रहा हूँ उसकी प्रत्येक साँस के प्रकंपन के साथ

    और मेरे मुँह से वमन हो रहा है रक्त

    —वह अँधेरे को लीलती ठहाके लगा रही है!

    उसकी आँखों में प्रतिहिंसा की आग जल रही है

    उसके नथुनों से निकल रही हैं ज़हरीली गैसें

    गैसों की गमक से रिसकर बह रही है मेरी त्वचा

    और मांस गंध में घिरी हवा बेहोश हो रही है

    प्रेमिका के सूखे स्तनों में टपक रहा है मेरा लहू

    उनका आकार उभर रहा है

    और स्तनों के ऊपर बन रहा है एक तीर का निशान

    ताज़े रक्त से सनी अपनी छातियों को मेरे वक्ष पर टिकाकर

    वह अपने तीर को मेरे सीने में खोंस रही है।

    कड़कड़ाहट की आवाज़ से टूट रही है छत

    चर्राकर गिर रही हैं चूलें और मिट्टी और गर्द

    मेरे स्नायु गल रहे हैं।

    मेरी अस्थियाँ काँप रही हैं

    मेरे मुख से सड़े हुए चूहों की दुर्गंध रही है

    वह कापालिका ठठाकर हँस रही है—

    मेरी मृत्यु भय से काँपती आँखों में उसने अपनी

    छिनगी उँगली खोंप दी है।

    मेरी जाँघों पर टपकाकर अपने मुख की राल

    उसने गर्म ख़ंजर भोंक दिया है

    शेरनी-सी ग़ुर्राकर

    मेरे कटे धड़ और जाँघ को चबाते हुए

    वह नाच रही है और कौओं और गिद्धों को सौंपकर

    मेरा नग्न शव

    ठंडी हवा में बैठकर

    धूप से सेंक रही है

    अपने लिजलिजे स्तन और

    दुःखती तथा काँपती टाँगों को!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 93)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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