कोलाहल इतना मलिन
दुःख कुछ इतना संगीन हो चुका है
मन होता है
सारा विषपान कर
चुप चला जाऊँ
ध्रुव एकांत में
सही नहीं जाती
पृथ्वी-भर मासूम बच्चों
माँओं की बेकल चीख़।
सारे-के-सारे रास्ते
सिर्फ़ दूरियों का मानचित्र थे
रहा भूगोल
उसका अपना ही पुश्तैनी फ़रेब है
कल तक्षशिला आज पेशावर
इसके बाद भेद-ही-भेद
जड़ का शाखाओं से
दाहिनी भुजा को बाईं
कलाई से।
बीसवीं सदी के विशद
पटाक्षेप पर
देख रहा हूँ मैं गिर रही दीवार
पानी की
डूब रहे बड़े-बड़े नाम
कपिल के सांख्य का आख़िरी भोजपत्र
फँसा फड़फड़ा रहा—
अंत हो रहा या शायद
पुनर्जन्म
पस्त पड़ी क्रांति का।
बीसवीं सदी के विशद मंच पर
खड़े जुनून भरे लोग—
जिन नगरों में जन्मे थे
उन्हीं को जला रहे
एक ओर एक लाख मील चल
गिरता हुआ अनलपिंड
और
दूसरी तरफ़ बुलबुला
बुलबुला
इनकार करता है पानी
कहलाने से
बड़ा समझदार हो गया है बुलबुला।
असल में अनिबद्ध था विकल्प
विकल्प ही भविष्य था
भविष्य घट रहा है।
इस क्षणभंगुर संसार में
अमरौती की तलाश भी
जा छिपी राष्ट्रसंघ के
पुस्तकालय में
देश जहाँ प्रेम की पुण्यतिथि मना रहे
ज़िक्र जब आता वंशावलि का
हरिश्चंद्र की
पारित हो लेता स्थगन प्रस्ताव
शायद सभी को
अपना भुइँतला ज्ञात है।
बहरों की नगरी में नाद बेहद का
आकाश फट रहा
एक आँखवाले संयंत्र पर
देख रहे बच्चे
अपनी जन्मस्थली
बेपरदा हुई मनुष्यता
भोग के प्रमाणपत्र बाँट रही
खुल रही पहेली दिन-ब-दिन
रहस्य
झिझक रहा फुटपाथ पर पड़ा
अपने पहचान-पत्र के अभाव में
दरिद्रदेवता
पूछ रहा पता
हवालात का
जहाँ उसे अपनी शिनाख़्त की
अनुपस्थिति के सबूत के अभाव में
फाँसी लगेगी... लगनी है
असल में यह अनुपस्थिति का मेला है
ख़त्म हुई चीज़ों की ख़रीद का विज्ञापन
युवा युवतियों को बुला रहा
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के
कितने नए ढंग अपना चुकी है
मरती शताब्दी
शोर-शोर सब तरफ़ घनघोर
नेता सब व्यस्त कुरते की लंबाई बढ़ाने में
स्त्रियाँ
उभराने में वक्ष
किसी को फ़िक्र नहीं सौ करोड़ वाले
इस देश में
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं
कुत्तों की फूलों में कोई रुचि नहीं
न मछलियों का छुटकारा
अपनी दुर्गंध से
यों सारी उम्र रहीं पानी में।
कैसे मैं पी लूँ सारा विष
विलय से पहले
मुझ नगण्य के लिए यह
पेचीदा सवाल है।
सब फेंके दे रही सभ्यता
धरती की कोख
दिन-ब-दिन ख़ाली
पानी हवा आकाश
हरियाली धूप
धीरे-धीरे
बढ़ती चली जा रही
कंगाली सब्र की
समझ क़ैद
बड़बोले बोलों की कारा में
त्वरा के चक्कर में
सब इंतज़ार हो गया है
काल को पछाड़कर
तेज़ रफ़्तार से
सब-कुछ होते हुए
होना
बदल गया है
समृद्धि के अकाल में
अस्ति से परास्त
विभवग्रस्त आदमी
एक-एक कर
फेंककर
सारी संपदा
क्या पृथ्वी भी
फेंक देगा?
मेरे समक्ष यह
संजीदा सवाल है
ठीक है कि सूर्य बुझनहार धूनी है
किसी अवधूत की
अविद्या-विद्यमान को ही
शाश्वत मानना
ठीक है कि हस्ती
एक झूठा हंगामा है
हर प्रतीक्षा का
गुणनफल
सिराना चुक
जाना है।
तब भी निष्ठा
उकसाती मुझे
सब कुछ को रोक देना
ज़रूरी है
भूलकर अपनी अवस्था।
चिड़ियों से फूलों से
पेड़ से हवा से
कहना चाहिए
भीतर से बाहर का तालमेल
नाव-नदी-संयोग
के बावजूद
बना अगर रहा न्यूनतम भी
बिसरा सरगम
किसी ताल में
होकर निबद्ध फिर
फिर उतर
आएगा।
पृथ्वी बच जाएगी
मैं रहूँ नहीं रहूँ
फ़र्क़ क्या।
- पुस्तक : भविष्य घट रहा है (पृष्ठ 9)
- रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 1999
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