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बेरोज़गारी में

berozagar mein

प्रांजल धर

प्रांजल धर

बेरोज़गारी में

प्रांजल धर

और अधिकप्रांजल धर

     

    एक

    बचपन में हममें से कोई बेरोज़गार नहीं था
    सिवा मजूरी करने वाले मिसिर महराज के बेटे के
    और सिवा सल्लू कबड़िया के
    जो अपने घर का ख़र्च चलाने
    और कई बार तो चूल्हा तक जलाने के लिए
    पंचर बनाने या लोहा बीनने का
    कोई भी काम कर लिया करते थे।

    दो

    जब बंद थे दरवाज़े चारों तरफ़
    सील कर दी जाती थीं
    कुछ अधखुली खिड़कियाँ मुझे देखकर।

    भीतरी स्नेह रखने वाले तमाम लोगों के लिए
    मेरा सामने आना
    कम नहीं होता था उनकी किसी अग्निपरीक्षा से।

    बहुत चाव से पढ़े जाते रोज़गार समाचार
    बाँच-बाँचकर ज़ोर-ज़ोर से
    हम सभी हॉस्टल वाले दोस्तों के बीच
    रेलवे और सब इंस्पेक्टर के आवेदन पत्रों का
    झमाझम होता था फ़ोटोस्टेट।
    कि जब कई लड़कियों से
    अपने प्रेम का इज़हार
    महज़ इसीलिए नहीं किया गया
    कि जवाब क्या होगा इस सवाल का
    कि तुम करते क्या हो?
    कोई माकूल जवाब नहीं था
    हममें से किसी के पास
    जो बहुत बड़े-बड़े सवालों के जवाब दिया करते थे
    पलक झपकते ही।

    अपना-सा मुँह लेकर रह जाना हमें स्वीकार न था
    और बग़लें झाँकना तो बिल्कुल नहीं
    बेरोज़गारी के उन कठिन दिनों में भी
    चौड़े और चौकस होकर बैठा करते थे
    गाँव-देहात से इलाहाबाद आए हम सारे दोस्त
    कि हमारे हृदय का आयतन
    बहुत ही ज़्यादा हुआ करता था भई!
    किसी रिश्तेदार के घर जाने से पहले
    हम हज़ार बार सोचते थे
    और नहीं ही जाते थे अंततः।

    तीन

    हमारे माँ-बाप को मशविरा दिया करते थे
    हमारे (अ)शुभचिंतक
    मानो वही माता-पिता हों हमारे
    मानो उन्हीं की आँखें डूबी थीं कातरता के पोखर में तब
    जब हमने फ़र्स्ट क्लास में पास किया था हाईस्कूल
    और लाख चाहकर भी खरे न उतर सके थे पिता अपने वादे पर
    कि फ़र्स्ट डिवीजन आने पर बँधवाऊँगा एक नई साइकिल तुम्हारे लिए।
    हमारे ये (अ)शुभचिंतक ही पढ़ा-लिखा रहे हों हमें मानो,
    और मानो हमारे बेरोज़गार रहने से
    बोझ उनका बढ़ेगा कुछ।
    तंगहाली के ऐसे जोख़िम भरे दौर में भी हम
    क्यूबा और उसकी अकड़ की
    तारीफ़ किया करते थे जमकर रात-रात भर,
    तस्वीरें चिपकाई जाती थीं कास्त्रो की
    हॉस्टल की सफ़ेद दीवारों पर
    भात की लेई से।

    चार

    हमारे सिर पर
    एक बहुत ऊँची पुरानी छत हुआ करती थी
    दोस्तों के अपनापे की
    टपकते जिससे सीनियर बेरोज़गारों के तमाम आशीष।

    याद है आज भी जब इसरत गाँव गया था
    अपनी बहन की शादी में
    तो हम सबने चंदा लगाकर
    एक उपहार ख़रीदा था अपनी सामूहिक बहन के लिए।
    कि दुकान पर चाय का पैसा
    कौन देगा आज
    इस पर कोई जनसभा नहीं हुई हम दोस्तों में
    कभी भी।

    शायद यह सब होने वाला जानकर
    चायवाले चाचा ख़ुद ही कह देते,
    “जाव भइया, काल्हि दइ दिहेव!
    का हम कहूँ भागा जाइत है?”

    यह सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पनपी
    ग़ैर-सरकारी दोस्तियों का दौर था
    जिसका बाल-बाँका कर न सकी कोई बेरोज़गारी,
    अँतड़ियों का बहुत वाजिब स्यापा भी
    इसी बेराज़गारी के पक्ष में लड़ रहा था
    हम दोस्तों के ख़िलाफ़ लामबंद हो,
    और परीक्षाओं के लिए हम
    बग़ैर टिकट रेल सफ़र कर ही लिया करते
    निश्चिंत हो, पूरे सिस्टम को ताक पर रखकर।

    पाँच

    बेरोज़गारी के वे दिन
    असल में हमारे
    और हमारे गाँववासियों के
    सपनों की उड़ान के दिन होते थे
    कि कोई कल्पित कलक्टर बनेगा
    तो कोई सच में गवर्नर!
    आकाश कम पड़ जाता
    उन्हीं सपनों के लिए
    जो आज बड़ी मुश्किल से
    कमरे की छत भी छू पाते शायद।

    छह

    पढ़ोगे-लिखोगे, बनोगे नवाब जैसी
    कितनी ही कहावतें
    उपदेश की शक्ल में इतनी बार सुनीं थीं बचपन से
    कि आ गया था आजिज़ मन
    और नफ़रत सबसे ज्यादा
    होती गई नवाब और अफ़सर बनने से ही
    बनना ही न चाहा हमने ये सब कभी।
    वक्त के साथ ठोस होता गया
    इस नफ़रत का तरल आधार
    और साबित हुआ वाजिब भी।

    हमें तभी से इन उपदेशों की दरारों में से
    ग़ुलामीपसंद मानसिकता की
    एक झीनी पट्टी झाँकती नज़र आती थी।

    सात

    हममें से कुछ लोग पा गए नौकरी,
    धान-गोहूँ बेचकर पढ़ाया गया जिन्हें
    कइयों की तो खेत-बारी भी रेहन पर थी,
    कुछ को तो बना दिया धनपशु नौकरियों ने
    अपनी हर योग्यता, हर चीज़ को
    पैसे में ही बदल डालना चाहते हैं कुछ तो,
    फिर भी इनमें से नहीं कोई शामिल
    देश-दुनिया के अमीरों की सूची में।

    अफ़सोस के साथ जान गए हम सभी
    कि नौकरी जैसा निकम्मा काम कुछ होता भी नहीं
    और मान गए
    कि बड़ी नौकरियाँ तो
    बड़े ही निकम्मे इंसानों को पैदा करती हैं।

    नौकरीपेशा लोग जाने क्यों सिकुड़कर रहते अब
    केंचुए की तरह,
    यक़ीन नहीं होता
    कि कैसे चौड़े और चौकस होकर
    बैठते थे हम बेरोज़गारी के दिनों में!
    बेरोज़गारी शायद ईंधन हुआ करती थी
    हमारे सपनों का।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रांजल धर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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