जल में इतना लोहा
कि पियो तो लोहासव लगे,
धरती इतनी लाल
कि ख़ून निचोड़ा जा सके
और हवा में इतनी चमड़े की महक
जैसे कि हवा यहाँ जूते पहनकर चलती है,
सूरज के डूबने के बाद भी
यहाँ आसमान लाल रहता है
और पूरी रात जलता रहता है।
हर मिलने वाला
जैसे घर से ही लेकर चलता है
पटाखों की शक्ल वाले शब्द
और मिलने पर इस तरह पटकता है सामने
कि उसके धमाके से
मेरे अंदर सनाका खिंच जाता है
और फिर मिलते हैं कहकर
रास्ते का पीछा करने लगता है।
खोखलेपन के यथार्थ को ज़ोर-ज़ोर से बजाता
और शिखर के महत्वकांक्षी सपनों में बुदबुदाता
यह शहर
मैं जानता हूँ मुझे कैसे जानेगा
क्योंकि निपनिया के एक शब्दकर्मी* के बारे में
जब भी पूछता हूँ तो जवाब मिलता है—
दुर! ऊ तऽ ख़त्म आदमी छै!
कवियाठपन यहाँ महुए की तरह
मुँह से चूता है
और शब्द इतने चबाकर बोले जाते हैं
कि छिल जाते हैं,
हर बात इतनी पोंछी हुई होती है
कि सिर्फ़ अभी और यही की चमक देती है,
हर आरंभ अभूतपूर्व का दावा करता है
और हर अंत एक दौर के ख़ात्मे का।
सुर्ख़ियों में आने तक छटपटाना
यहाँ नामों की फ़ितरत है,
गुमनामी की पीड़ा में कराहते हुए
रात-रात भर जागते हैं कुछ नाम।
अपने अतीत के शिखरों को छूने के लिए
पंजों पर उचकता रहता है
अपने घिस गए वर्तमान से बेख़बर
यह शहर।
सिमरिया के एक विशाल बरगद की छाँव में
आज भी फूटते हैं शब्दों के कल्ले
और आती है गीतों की भीनी महक,
जब कभी हवा के झोंके से
मचलती हैं इसकी डालें
तो बड़ी दूर तक जाता है
शौर्य और ओज से एक भरा गंभीर नाद।**
अतीत के कई उपेक्षित और दलित शब्द
आज भी शिलाओं के रूप में
खड़े हैं यहाँ किसी की प्रतीक्षा में
जो झाड़ सके उन पर पड़ी
इतिहास की काली धूल,
बना सके मील के पत्थर
और दिला सके उनका स्वाभिमान।
एक कृशकाय बूढ़ी नदी
अभी तक लेकर आती है
किसी भुला दी गई प्रासंगिकता के
पुनराभिषेक के लिए
सत्याग्रह और अहिंसा का मंत्रपूत जल।***
निर्वासन झेल रही एक झील में
बचा हुआ है इस शहर की आँखों का पानी
और स्वीकार का भाव।
अपने जम्हुआते साल को विदा करने के लिए
इसके किनारों तक चला आता है यह शहर
और उगाकर चला जाता है
दर्प और दुश्मनी के कई द्वीप,
जिन्हें पूरे साल रो-रोकर
डुबोती है यह झील।****
परिधि की परिकल्पना से अनजान
भीड़ में नहीं खड़ा होता है या शहर,
इस शहर के मध्य भीड़ नहीं होती,
यहाँ मध्यान्ह नहीं होता,
यहाँ मध्यरात्रि नहीं आती,
यहाँ मध्य गति नहीं है,
यहाँ मध्य मति नहीं है,
भूत और भविष्य के बीच
वर्तमान नहीं है,
प्रसव और परिपाक के बीच
मध्य वय नहीं है,
विलंबित और द्रुत के बीच
मध्य लय नहीं है।
***
* यहाँ बेगूसराय के निपनियाँ गाँव के प्रसिद्ध कथाकार अरुण प्रकाश का संदर्भ ग्राह्य हैं।
** राष्ट्रकवि दिनकर का संदर्भ ग्राह्य।
***गंडक नदी एवं महात्म गाँधी का संदर्भ ग्राह्य
**** काँवर झील
- रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.