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बीस बरस

bees baras

अच्युतानंद मिश्र

और अधिकअच्युतानंद मिश्र

    उदास रौशनी के पार

    एक जगमगाता शहर था

    पानी के पुलों पर

    थिरकते सपनों से भरी

    चमकीली पुतलियाँ थीं

    अँधेरी रातों में सितारों भरे

    आकाश की याद मौजूद थी।

    रोज़ आती थीं रेलगाड़ियाँ

    उम्मीद के स्टेशन पर रुकतीं

    मिनट दो मिनट

    और इच्छाओं के फेरीवाले

    आवाज़ देते

    शहर पुकारते थे

    बीस बरस पार से हमें

    बस की खिड़कियों से

    दिखता था भविष्य

    ऊँची बिल्डिंगों की तरह

    एक अदद सपना था कि

    टूटता नहीं था

    एक अदद रौशनी

    बुझती नहीं थी

    एक उम्मीद

    ख़त्म नहीं होती थी

    किताबों के बीच दबी

    बीस बरस पुराने पेड़ों के

    सूखे पत्तों की तरह प्रेमिकाएँ

    पिछले जन्म की याद

    की तरह मुस्कुराती थीं

    वे मुस्कुराती थीं हमारे सपनों में

    हम बीस बरस पीछे चले जाते

    शहर की उदास सड़कों से

    तेज़ बहुत तेज़ रौशनी के

    फुहारे छोड़ती गाड़ियाँ गुज़र जातीं

    बीस बरस पुरानी

    हरी घास-सी याद

    भविष्य के दुःस्वप्न में

    धू-धू कर जल उठती

    अतीत एक डूबता द्वीप था

    हर ओर यातनाओं का समुद्र लहराता

    लहरों से पुकारता था भविष्य

    एक चिड़िया उड़ जाती

    हाथों में चुभ जाता था

    नींबू का काँटा

    ज़ुबान पर फ़ैल जाता था

    दुःख के समुद्र का नमक

    सिर्फ़ आकाश था

    अनुभव के पार दूर तक

    क़रीने से रखी दुनिया में

    हमें अपने हिस्से की तलाश थी

    और जुलूस

    और आंदोलन

    और घेराबंदी

    सपनों की कोरों में

    ढुलकते आँसू

    सब एक डब्बे में बंद थे

    हम नदियों के लिए उदास थे कि

    पेड़ों के लिए

    हम सड़कों के लिए उदास थे

    या मैदानों के लिए

    मालूम नहीं की तरह

    दुनिया गोल थी

    पगडंडियों से निकलती सड़कें

    और सड़कों से निकलते थे राजमार्ग

    राजमार्ग से गुज़रता था

    एक अदद बूढ़ा

    उसकी आँखों की पुतलियों में

    चमकता था हमारा दुःख

    एक रुलाई फूटती थी

    और समूचे अतीत को

    बहा ले जाती थी

    एक हाथ टूटता और

    बुहार ले जाता सारा साहस

    एक कंधा झुकता

    और समेट लेता सारी उम्मीदें

    एक शख़्स मरता

    और सपने आत्मदाह करने लगते

    रात के तीसरे पहर

    कोई उल्लू चिहुँक उठता

    पल भर के लिए

    चुप हो जाते झींगुर

    कोई कबूतर पंख फड़फड़ाता

    हड़बड़ाकर हम उठते,

    कहते, गहरी नींद में

    गुज़ारी रात हमने

    सपनों से लहूलुहान

    जिस्म का रक्त पोंछते

    एक समूचे दिन को बिछाने लगते

    धुँधली उम्मीद के चमकने तक

    हम अपने फेफड़ों में भरपूर साँस भरते

    और मुस्कुराते हुए करते

    दिन की शुरुआत

    बीस बरस बाद

    बीस बरस के लिए

    अगले बीस बरस तक

    स्रोत :
    • रचनाकार : अच्युतानंद मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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